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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
यह हुआ कि कुछ भी समझ में नहीं आया। इसलिए ब्याति का निश्चय करने के लिए तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है। अनुमान
अनुमान तक का कार्य है। तर्क द्वारा निश्चित नियम के आधार पर यह उत्पन्न होता है। पर्वत सिद्ध होता है और अग्नि भी। अनुमान इन्हें नहीं माधता । वह 'इस पर्वत में अमि है (अमिमानयं पर्वतः ) इसे माधता है। इस सिद्धि का आधार व्याति है । अनुमान का परिवार
तर्क-शास्त्र के वीज का विकास अनुमानरूपी कल्पतरु के रूप में होता है। कई नैयायिक आचार्य पञ्चवाक्यात्मक प्रयोग को ही न्याय मानते हैं निगमन फल प्राति है । वह समस्त प्रमाणों के व्यापार से होती है । प्रतिज्ञा में शब्द, हेतु में अनुमान, दृष्टान्त में प्रत्यक्ष, उपनय में उपमान-इस प्रकार सभी प्रमाण
आ जाते हैं। इन सबके योग से फलितार्थ निकलता है-ऐसा न्याय वार्तिककार का मत है। व्यवहार-दृष्टि से जैन-दृष्टि भी इससे सहमत है। यद्यपि पञ्चावयव में प्रमाण का समावेश करना आवश्यक नही लगता, फिर भी तर्क-शास्त्र का मुख्य विषय साधन के द्वारा साध्य की सिद्धि है, इसमें द्वैत नही हो सकता)
अनुमान अपने लिए स्वार्थ होता है, वैसे दूसरों के लिए परार्थ भी होता है। 'स्वार्थ' ज्ञानात्मक होता है और 'परार्थ' वचनात्मक । 'स्वार्थ' की दो शाखाए होती है-पक्ष और हेतु । 'पगर्थ' की, जहाँ श्रोता तीव्र बुद्धि होता। वहाँ सिर्फ ये दो शाखाएं और जहाँ श्रोता मंद बुद्धि होता है वहाँ पांच शाग्वाए होती हैं -
(१) पक्ष। (२) हेतु। (३) दृष्टान्त। ( उपनय। (५) निगमन।