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परोक्ष
(१) इन्द्रिय और मन की सहायता से आत्मा को जो शन होता है, वह 'आत्म-परोक्ष है।
आत्मा-इन्द्रिय शान-पौद्गलिक-इन्द्रिय-पदार्थ । (२) धूम आदि की सहायता से अमि आदि का जो ज्ञान होता है, वह 'इन्द्रिय परीक्ष' है।'
आत्मा-इन्द्रिय-धूम-अमि । पहली परिभाषा नैश्चयिक है। इसके अनुसार संव्यवहार प्रत्यक्ष को वस्तुतः परोक्ष माना जाता है।
मति और अत-ये दोनों ज्ञान आत्म निर्भर नहीं हैं, इसलिए ये परोक्ष कहलाते हैं । मति, साक्षात् रूप में पौगलिक इन्द्रिय और मन के और परम्परा के रूप में अर्थ और आलोक के, अधीन होती है। श्रुत, साक्षात् रूप में मन के और परम्परा के रूप में शब्द-संकेत तथा इन्द्रिय (मति-ज्ञानांश) के अधीन होता है। मृति में इन्द्रिय मन की अपेक्षा समकक्ष है, श्रुत में मन का स्थान पहला है।
मति के दो साधन है-इन्द्रिय और मन । मन द्विविध धर्मा हैअवग्रह आदि धर्मवान् और स्मृत्यादि धर्मवान् । इस स्थिति में मति दो भागी में बंट जाती है-(१) व्यवहार प्रत्यक्ष मति। ५२) परोक्ष-मति । इन्द्रियात्मक और अवग्रहादि धर्मक मनरूप मति व्यवहार प्रत्यक्ष है, जिसका स्वरूप प्रत्यक्ष विभाग में बतलाया जा चुका है।
स्मृत्यादि धर्मक, मन रूप परोक्ष-मति के चार विभाग होते हैं:(अस्मृतिः। (२)अत्यभिश। (३)तर्फ। (४) अनुमान ।
स्मृति धारणामूलक, प्रत्यभिशा स्मृति और अनुभवमूलक, वर्क प्रत्यभिज्ञा मूलक, अनुमान तक निणीत साधनमूलक होते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं। श्रुत