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प्रत्यक्ष
'नहि दृष्टे अनुपपन्नं नाम-प्रत्यक्ष-सिद्ध के लिए युक्ति की कोई आवश्यकता नहीं होती। स्वरूप की अपेक्षा शान में कोई अन्तर नही है। यथार्थता के क्षेत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष का स्थान न्यूनाधिक नही है। अपनेअपने विषय में दोनो तुल्यवल हैं। सामर्थ्य की दृष्टि से दोनो मे बड़ा अन्तर है। प्रत्यक्ष ऋप्तिकाल में स्वतन्त्र होता है और परोक्ष साधन-परतन्त्र) फलतः प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यवहित (साक्षात् ) सम्बन्ध होता है और परोक्ष का व्यवहित (दूसरे के माध्यम से), प्रत्यक्ष-परिवार
प्रत्यक्ष की दो प्रधान शाखाएं हैं-(१) आत्म-प्रत्यक्ष (२) इन्द्रियअनिन्द्रिय-प्रत्यक्ष। पहली परमार्थाश्रयी है, इसलिए यह वास्तविक प्रत्यक्ष है
और दूसरी व्यवहाराश्रयी है, इसलिए यह औपचारिक प्रत्यक्ष है। • आत्म-प्रत्यक्ष के दो भेट होते हैं--(१) केवल ज्ञान–पूर्ण या सकल-प्रत्यक्ष, (२) नो-केवलज्ञान-अपूर्ण या विकल-प्रत्यक्ष ।
नौकेवल ज्ञानं के दो भेद है-अवधि और मनः प्रर्यव । इन्द्रिय-अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार प्रकार है(१) अवग्रह (२) ईहा (३) अवाय
(४) धारणा प्रत्यक्ष का लक्षण
आत्म-अत्यन-आत्मा-पदार्थ। इन्द्रिय प्रत्यक्ष-श्रात्मा-इन्द्रिय-पदार्य । (१) आत्म-प्रत्यक्षइन्द्रिय मन और प्रमाणान्तर का सहारा लिए विना आल्मा को पदार्थ