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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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यद्यपि 'अपरोक्ष' का वेदान्त के और विशद का बौद्ध के प्रत्यक्ष-लक्षण से अधिक सामीप्य है, फिर भी उसके विषय-ग्राहक स्वरूप में मौलिक मेद हैं। जावेदान्त के मतानुसार पदार्थ का प्रत्यक्ष अन्तःकरण (आन्तरिक इन्द्रिय) की
वृत्ति के माध्यम से होता है । अन्तःकरण दृश्यमान पदार्थ का आकार धारण करता है। आत्मा अपने शुद्ध-साक्षी चैतन्य से उसे प्रकाशित करता है, तब प्रत्यक्ष ज्ञान होता है )
जैन-दृष्टि के अनुसार प्रत्यक्ष में ज्ञान और ज्ञेय के वीच दूसरी कोई शक्ति नही होती। शुद्ध चैतन्य के द्वारा अन्तःकरण को प्रकाशित माने और अन्तःकरण की पदार्थाकार परिणति माने, यह प्रक्रियागौरव है। आखिर शुद्ध चैतन्य के द्वारा एक को प्रकाशित मानना ही है, तब पदार्थ को ही क्यो न मानें। । बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानते हैं। जैन-दृष्टि के अनुसार निर्विकल्पवोध (दर्शन) निर्णायक नही होता, इसलिए वह प्रत्यक्ष तो क्या प्रमाण ही नही बनता। समन्वय का फलित रूप
अपरोक्ष और विशद का समन्वय करने पर सहाय-निरपेक्ष अर्थ फलित होता है। 'अपरोक्ष' यह परिभाषा परोक्ष लक्षणाश्रित है। 'विशद' यह
आकांक्षा-सापेक्ष है। वैशय का क्या अर्थ है, इसकी अपेक्षा रहती है। 'सहाय-निरपेक्ष प्रत्यक्ष' इसमें यह आकांक्षा अपने आप पूरी हो जाती है । जो सहाय' निरपेक्ष आत्म-व्यापारमात्रापेक्ष होगा, वह विशद भी होगा और अपरोक्ष भी व्यवहार प्रत्यक्ष में प्रमाणान्तर की और वास्तविकप्रत्यक्ष में प्रमाणान्तर और पौद्गलिक इन्द्रिय-इन दोनों की सहायता अपेक्षित नही होती कैवलज्ञान
अनावृत्त अवस्था में आत्मा के एक या अखण्ड ज्ञान होता है, वह केवलज्ञान है । जैन-दृष्टि में आत्मा जान का अधिकरण नहीं, किन्तु ज्ञान स्वरूप है। । इसीलिए कहा जाता है-चेतन आत्मा का जो निरावरण-स्वरूप है, वही केवलज्ञान है । वास्तव में काल' व्यतिरिक्त कोई जान नहीं है। बाकी के सव ज्ञान