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जैन दर्शन में प्रमाण मोमासा
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व्यञ्जनावग्रह सम्पर्कपूर्वक होने वाला अव्यक्त ज्ञान है। अर्थावग्रह उसी का चरम अश है)। पटु इन्द्रियां एक साथ विषय को पकड़ नहीं सकती। व्यञ्जनावग्रह के द्वारा अव्यक्त ज्ञान होते होते जब वह पुष्ठ हो जाता है, तब उसको अर्थ का अवग्रह होता है। चतु अपना विषय तत्काल पकड़ लेता है, इसलिए उसे पूर्वभावी अव्यक्त शान की अपेक्षा नहीं होती।
(मन की भी यही बात है। वह चतु की भांति व्यवहित पदार्थ को जान लेता है, इसलिए उसे भी व्यञ्जनावग्रह की उपेक्षा नहीं होती)।
बौद्ध श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक चक्षु और मन को अप्राप्यकारी नही मानते। उक्त दोनो दृष्टियो से जैन दृष्टि भिन्न है।
श्रोत्र व्यवहित शब्द को नहीं जानता। जो शब्द श्रोत्र से संपृक्त होता है, वही उसका विषय बनता है। इसलिए श्रोत्र अप्राप्यकारी नहीं हो सकता । (चक्षु और मन व्यवहित पदार्य को जानते हैं, इसलिए वे प्राप्यकारी नहीं हो सकते । इनका ग्राह्य वस्तु के साथ सम्पर्क नहीं होता।
_ विज्ञान के अनुसार
....."चतु में दृश्य वस्तु का तदाकार प्रतिविम्ब पड़ता है। उससे चक्षु को अपने विषय का ज्ञान होता है। नैयायिको की प्राप्यकारिता का आधार है चतु की सूक्ष्म-रश्मियो का पदार्थ से संपृक्त होना। 'विज्ञान इसे स्वीकार नही करता । वह आँख को एक बढ़िया केमेरा (Camera) मानता है । उसमे दूरस्थ वस्तु का चित्र अंकित हो जाता है। जैन दृष्टि की अप्राप्यकारिता में इससे कोई बाधा नही आती। कारण कि विज्ञान के अनुसार चक्षु का पदार्थ के साथ सम्पर्क नही होता । काच स्वच्छ होता है, इसलिए उसके सामने जो वस्तु पाती है, उसकी छाया काच में प्रतिबिम्बित हो जाती है । ठीक यही प्रक्रिया आँख के सामने कोई वस्तु आने पर होती है। काच मे पड़ने वाला वस्तु का प्रतिबिम्ब और वरतु एक नहीं होते, इसलिए काच उस वस्तु से संपृक्त नहीं कहलाता। ठीक यही बात ऑख के लिए है।