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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
[५३ फलस्वरूप व्यवहार प्रत्यक्ष के रू मेद और मति के २८ मेद एक रूप बन जाते हैं। इसका आधार स्थानाग २-१-७१ है। वहाँ व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह की श्रुत-निश्रित और अश्रुत-निश्रित-इन दोनो मेदों में गणना की है ( अश्रुतनिश्रित बुद्धि-चतुष्टय मानस ज्ञान होता है। उसका व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, इससे फलित होता है कि बुद्धि-चतुष्टय के अतिरिक्त भी अवग्रह आदि चतुष्क अश्रुत-निश्रित होता है)
नन्दी के अनुसार अवग्रहादि चतुष्क केवल श्रुत-निश्रित हैं। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार वह श्रुत-निश्रित और अक्षुत निभित दोनों है। स्थानाङ्ग के अनुसार वह दोनो तो है ही, विशेष बात यह है कि बुद्धि-चतुष्टय में होने वाला अवग्रहादि चतुष्क ही अश्रुत-निभित नही किन्तु उसके अतिरिक्त भी अवग्रहादि चतुष्क अश्रुत-निश्रित होता है।४ ।