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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा इसी की आवरण-दशा के तारतम्य से बनते हैं । जयाचार्य ने जान के मैद-अभेद की मीमासा करते हुए समझाया है-"माना कि एक चांदी की चौकी धूल से टकी हुई है । उसके किनारों पर से धूल हटने लगी। एक कोना दीखा, हमने एक चीज मान ली। दूसरा दीखा तब दो, इसी प्रकार तीसरे और चौथे कोने के दीखने पर चार चीजें मान ली। बीच में से धूल नहीं हटी, इसलिए उन चारों की एकता का हमे पता नही लगा। ज्यो ही वीच की धूल हटी, चौकी सामने आई। हमने देखा कि वे चारों चीजें उसी एक में समा गई हैं। ठीक वैसे ही केवलशान ढका रहता है तब तक उसके अल्प-विकसित छोरों को भिन्नभिन्न जान माना जाता है । (आवरण-विलय (घाति कर्म चतुष्टय का क्षय) होने पर जब केवलज्ञान प्रकट होता है, तब ज्ञान के छोटे-छोटे सब मेद उसमें विलीन हो जाते हैं। फिर आत्मा में सव द्रव्य और द्रव्यगत सव परिवर्तनों को साक्षात् करने वाला एक ही शान रहता है, वह है केवलज्ञान । त्रिकालवी प्रमेय मात्र इसके विषय बनते हैं, इसलिए यह पूर्ण प्रत्यक्ष कहलाता है । इसकी आवृत दशा में अवधि और मनः पर्यव अपूर्ण (विकल ) प्रत्यक्ष कहलाते हैं। व्यवहार-प्रत्यक्ष
(अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा) इन्द्रिय और मन का ज्ञान अल्प-विकसित होता है, इसलिए पदार्थ के ज्ञान में उनका एक निश्चित क्रम रहता है । हमे उनके द्वारा पहले-पहल वस्तु-मात्रसामान्य रूप या एकता का बोध होता है। उसके बाद क्रमशः वस्तु की विशेष अवस्थाएं या अनेकता जानी जाती हैं। एकता का बोध सुलम और अल्प समय-लभ्य होता है उस दशा में अनेकता का बोध यत्नसाध्य और दीर्घकाललभ्य होता है। उदाहरणस्वरूप-गांव है, वन है, सभा है, पुस्तकालय है, घड़ा है, कपड़ा है, यह बोध हजार घर हैं, सौ वृक्ष हैं, चार सौ आदमी हैं, दस हजार पुस्तकें हैं, अमुक-परिमाण मृत् कण हैं, अमुक परिमाण तन्तु है से पहले और सहज-सरल होता है । 'आम एक वृक्ष है-इससे पहले वृक्षत्व का बोध होना सावश्यक है। आम पहले वृक्ष है और बाद में श्राम ।
अवशेष का बोध सामान्यपूर्वक होता है । सामान्य व्यापक होता है और