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जैन दर्शन में प्रमाण भीमासा
चाहिए-ज्ञानसामान्य में खींची हुई यथार्थता की भेद-रेखा का अतिक्रमण नही होना चाहिए। फलतः जितने यथार्थ ज्ञान उतने ही प्रमाण । यह एक लम्बाचौड़ा निर्णय हुआ। वात सही है, फिर भी सबके लिए कठिन है, इसलिए इसे समेट कर दो भागों में बांट दिया। बांटने मे एक कठिनाई थी। ज्ञान का स्परूप एक है फिर उसे कैसे बांटा जाय ! इसका समाधान यह मिला कि विकास-मात्रा (अनावृत्त दशा) के आधार पर उसे बांटा जाय । शान के पाच स्थूल भेद हुए :(१) मतिज्ञान-इन्द्रिय ज्ञान, मानस शान
ऐन्द्रियिक (२) श्रुतज्ञान-शब्दज्ञान (३) अवधिज्ञान--मूर्तपदार्थ का ज्ञान (४) मनः पर्यवज्ञान-मानसिक भावना का ज्ञान । ओन्द्रिय (५) केवलज्ञान-समस्त द्रव्य पर्याय का ज्ञान, पूर्णज्ञान
अब प्रश्न रहा, प्रमाण का विभाग कैसे किया जाय ! ज्ञान केवल आत्मा का विकास है। प्रमाण पदार्थ के प्रति ज्ञान का सही व्यापार है। ज्ञान
आत्म-निष्ठ है। प्रमाण का सम्बन्ध अन्तर्जगत् और बहिर्जगत् दोनो से है। (बहिर्जगत् की यथार्थ घटनाओ को अन्तर्जगत् तक पहुंचाए, यही प्रमाण का जीवन है । वहिर्जगत् के प्रति जान का व्यापार एक-सा नहीं होता। ज्ञान का विकास प्रबल होता है, तब वह बाह्य साधन की सहायता लिए बिना ही विषय को जान लेता है। विकास कम होता है, तब बाह्य साधन का सहारा लेना पड़ता है। बस यही प्रमाण-भेद का आधार बनता है।
(१) पदार्थ को जो सहाय-निरपेक्ष होकर ग्रहण करता है, वह प्रत्यक्ष-प्रमाण है और (२) जो सहाय-सापेक्ष होकर ग्रहण करता है, वह परोक्ष-प्रमाण है। स्वनिर्णय में प्रत्यक्ष ही होता है। उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष-ये दो भेद पदार्थनिर्णय के दो रूप साक्षात् और अ-साक्षात् की अपेक्षा से होते हैं।
'प्रत्यक्ष और परोक्ष' प्रमाण की कल्पना जैन न्याय की विशेप सूझ है। इन दो दिशाओ में सव प्रमाण समा जाते हैं। उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु के भेद किये जाते हैं किन्तु भेद उतने ही होने चाहिए- जितने अपना स्वरूप असंकीर्ण रख सकें। फिर भी जिनमें यथार्थता है, उन्हें प्रमाणभेद