________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
मिथ्या श्रद्धान या मिथ्यात्व कहलाता है और मिथ्या दृष्टि के सम्यक् का अंश तथा व्यावहारिक - - सम्यग्ज्ञान अज्ञान कहलाता है ।
भगवती में 'मिथ्यादृष्टि के दर्शन विपर्यय होता है' यह बतलाया है किन्तु सब मिध्यादृष्टि व्यक्तियो के वह होता है—यह नियम नही ६०। वैसे ही अज्ञानत्रिक मे दृष्टि -मोह के उदय से मिथ्यात्व होता है किन्तु अज्ञानमात्र मिथ्यात्व होता है, यह नियम नहीं ।
[ ३५
श्रद्धान
उक्त विवेचन के फलित ये हैं
(१) तात्त्विक - विपर्यय दृष्टि- मोह और व्यावहारिक- विपर्यय ज्ञानावरण के उदय का परिणाम है।
ト
( २ ) अज्ञानमात्र ज्ञान का विपर्यय नही, तात्त्विक विप्रतिपत्ति अथवा ef-महोदय-संवलित अज्ञान ही ज्ञान का विपर्यय है ।
( ३ ) मिथ्या दृष्टि का अज्ञान मात्र दृष्टि मोह- संबलित नही होता । प्रमाण-संख्या
1
* प्रमाण की संख्या सब दर्शनी में एक सी नही है । नास्तिक केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं; वैशेषिक दो - प्रत्यक्ष और अनुमान; साख्य तीन-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम; नैयायिक चार -- प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान मीमासा ( प्रभाकर) पांच - प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रागम, उपमान और अर्थापत्ति, मीमांसा ( भट्ट, वेदान्त ) छह--- प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और प्रभाव | पौराणिक इनके अतिरिक्त सम्भव, ऐतिह्य, प्रातिभ
। |
प्रम्राण और मानते हैं । जैन दो प्रमाण मानते हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रमाण भेद का निमित्त
५
1
आत्मा का स्वरूप केवल ज्ञान है, केवल ज्ञान - पूर्णज्ञान अथवा एक शोन वादलों में ढके हुए सूर्य के प्रकाश में जैसे तारतम्य होता है, वैसे ही कर्ममलाचरण से ढकी हुई आत्मा में ज्ञान का तारतम्य होता है । कर्ममल के आवरण और अनावरण के आधार पर ज्ञान के अनेक रूप बनते हैं । प्रश्न यह है कि किस ज्ञान को प्रमाण मानें ? इसके उत्तर में जैन- दृष्टि यह है कि जितने प्रकार के शान ( इन्द्रियज्ञान, मानसज्ञान, श्रतीन्द्रियज्ञान) हैं, वे सब प्रमाण बन सकते हैं। शर्त केवल यही है कि वे यथार्थत्व से अवच्छिन्न होने