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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा वह मिथ्या दृष्टि सम्यग्मिथ्या दृष्टि नहीं बनता। वह भूमिका इससे ऊँची है। मिश्र-दृष्टि व्यक्ति को केवल एक तत्त्व या तत्त्वांश मे सन्देह होता है । मिथ्या दृष्टि का सभी तत्वों में विपर्यय हो सकता है। ___ मिश्र दृष्टि तत्त्व के प्रति संशयितदशा है और मिथ्या दृष्टि विपरीत संज्ञान । संशयितदशा में अतत्त्व का अभिनिवेश नहीं होता और विपरीत संजान में वह होता है, इसलिए इसका-पहली भूमिका का अधिकारी अंशतः मम्यम् दर्शनी होते हुए भी तीसरी भूमिका के अधिकारी कीभांति सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नही कहलाता। मिथ्या दृष्टि के साथ सम्यग-दर्शन का उल्लेख नहीं होता, यह उसके दृष्टि-विपर्यय की प्रधानता का परिणाम है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें सम्यग्दर्शन का अंश नहीं होता। सम्यग् दर्शन का अंश होने पर भी वह सम्यग् दृष्टि इसलिए नहीं कहलाता कि उसके दृष्टि-मोह का अपेक्षित विलय नहीं होता।
वस्तुवृत्त्या तत्त्वो की सप्रतिपत्ति और विप्रतिपत्ति मम्यक्त्व और मिध्यात्व का स्वरूप नही है। सम्यक्त्व दृष्टि मोह-रहित आत्म-परिणाम है और मिथ्यात्व दृष्टि-मोह-सवलित आत्म परिणाम" । तत्वों का सम्यग् और असम्यग् श्रद्धान उनके फल हैं ८ ।।
प्रमाता दृष्टि-मोह से बद्ध नहीं होता, तब उसका तत्व श्रद्धान यथार्य होता है और उससे बद्धदशा में वह यथार्थ नहीं होता । आत्मा के सम्यक्त्व
और मिथ्यात्व के परिणाम तात्त्विक सम्प्रतिपति और विप्रतिपत्ति के द्वारा स्थूलवृत्ता अनुमेय हैं। ___ आचार्य विद्यानन्द के अनुसार अज्ञानत्रिक में दृष्टि-मोह के उदय से मिथ्याल होता है किन्तु इसका अर्थ यह नही कि तीन वोध (मति, श्रुत और विभग) मिथ्यात्व स्वरूप ही होते हैं ५९ । ज्ञानावरण-विलयजन्य ज्ञान जव मिथ्यात्वमोह के उदय से अभिभूत होता है तात्पर्य कि जिस श्रद्धान में ज्ञानावरण का क्षयोपशम और मिथ्यात्व-मोह का उदय दोनों संवलित होते हैं, तब मिथ्या दृष्टि के वोध में मिथ्यात्व होता है । इस मिथ्यात्व के कारण मिथ्या दृष्टि का बोष अज्ञान कहलाता है, यह बात नहीं । दृष्टि-मोह के उदय से प्रभावित बोध