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जैन दर्शन में प्रमाण मौमासा
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का परिणाम है और उसमे जितना यथार्थ ज्ञान का अभाव है, वह ज्ञानावरण के उदय का परिणाम है ३२॥ अयथार्थ ज्ञान के दो पहलू
अयथार्थ ज्ञान के दो पक्ष होते हैं-(१) आध्यात्मिक और (२) व्यावहारिक । आध्यात्मिक विपर्यय को मिथ्यात्व और आध्यात्मिक मशय को मिश्र-मोह कहा जाता है। इनका उद्भव आत्मा की मोह-दशा से होता है 35। इनसे श्रद्धा विकृत होती है ।
व्यावहारिक संशय और विपर्यय का नाम है 'समारोप' ३५। यह शानावरण के उदय से होता है । इससे ज्ञान यथार्थ नहीं होता।
पहला पक्ष दृष्टि-मोह है और दूसरा पक्ष शान-मोह । इनका भेद समझाते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-"तत्व श्रद्धा मे विपर्यय होने पर मिथ्यात्व होता है ३७१ अन्यत्र विपर्यय होता है, तब ज्ञान असत्य होता है किन्तु वह मिथ्यात्र नहीं बनता।" __ दृष्टि मोह मिथ्या दृष्टि के ही होता है । ज्ञान-मोह सम्यग् दृष्टि और मिथ्या दृष्टि दोनो के होता है । दृष्टि-मोह मिथ्यात्व है, किन्तु अज्ञान नहीं। मिथ्यात्व मोह जनित होता है और अज्ञान (मिथ्या दृष्टि का शान) ज्ञानावरण विलय (क्षयोपशम) जनित । श्रद्धा का विपर्यय मिथ्यात्व से होता है, अज्ञान से नहीं । जैसा कि जयाचार्य ने लिखा है
"मोहनी उन्माउना वे भेठ एक मिथ्यावी, तसु उदय थी श्रद्धेज ऊंघी, दस बोला मैं एक ही।"-भग जोड़ ११२।
-मिथ्यात्व मोहनीय उन्माद का एक प्रकार है। उसके उदय से श्रद्धा विपरीत बनती है।
मिथ्यात्व और अज्ञान का अन्तर बताते हुए उन्होंने लिखा है-"अज्ञानी कई विषयो मे विपरीत श्रद्धा रखते हैं, वह मिथ्यात्व-प्रास्रव है। वह मौह-कर्म के उदय से पैदा होता है, इसलिए वह अज्ञान नहीं। अज्ञानी जितना सम्यग् जानता है, वह ज्ञानावरण के विलय से उत्पन्न होता है । वह अधिकारी की अपेक्षा से अज्ञान कहलाता है, इसलिए अज्ञान और विपरीत श्रद्धा दोनो भिन्न है।"