________________
जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
-
-
-
वारे में अभी-अभी हम दो विकल्प कर आये हैं 'पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी। यह संशय नहीं है । संशय या अनिर्णायक विकल्प वह होता है, जहाँ पदार्थ के एक धर्म के बारे में दो विकल्प होते हैं। अनेक धर्मात्मक वस्तु के अनेक धर्मों पर होने वाले अनेक विकल्प इसलिए निर्णायक होते हैं कि उनकी कल्पना आधार शून्य नहीं होती। स्याद्वाद के प्रामाणिक विकल्पोभंगों को संशयवाद कहने वालो को यह स्मरण रखना चाहिए। अनध्यवसाय
अनध्यवसाय आलोचन मात्र होता है। किसी पक्षी को देखा और एक नालोचन शुरू हो गया इस पक्षी का क्या नाम है ? चलते चलते किसी पदार्थ का स्पर्श हुआ। यह जान लिया कि स्पर्श हुआ है किन्तु किस वस्तु का हुआ है, यह नहीं जाना। इस ज्ञान की आलोचना में ही परिसमाति हो जाती है, कोई निर्णय नहीं निकलता। इसमे वस्तु-स्वरूप का अन्यथा ग्रहण नहीं होता, इसलिए यह विपर्यय से भिन्न है और यह विशेष का स्पर्श नही करता, इसलिए संशय से भी मिन्न है । संशय में व्यक्ति का उल्लेख होता है । यह नाति सामान्य विषयक है। इसमें पक्षी और स्पर्श की के व्यक्ति का नामोल्लेख नही होता।
(अनध्यवसाय वास्तव में अयथार्थ नहीं है, अपूर्ण है। वस्तु जैसी है उसे विपरीत नहीं किन्तु उसी रूप में जानने में अक्षम है । इसलिए इसे अयथार्थ ज्ञान की कोटि मे रखा है। अनध्यवसाय को अयथार्य उसी दशा में कहा जा सकता है, जबकि यह 'आलोचन मात्र तक ही रह जाता है। अगर यह आगे वढ़े तो अवग्रह के अन्तर्गत हो जाता है | अयथार्थ ज्ञान के हेतु ___ एक ही प्रमाता का ज्ञान कमी प्रमाण बन जाता है और कमी अप्रमाण, यह क्यों? जैन-दृष्टि में इसका समाधान यह है कि यह सामग्री के दोष से होता है।
प्रमाता का ज्ञान निरावरण होने पर ऐसी स्थिति नहीं बनती। उसका ज्ञान अप्रमाण नहीं होता। यह स्थिति उसके सावरण जान की दशा में बनती है ॥