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जैन दर्शन में प्रमाण मौमांसों
ज्ञान की सामग्री द्विविध होती है-(१) आन्तरिक और (२) वाह्य । आन्तरिक सामग्री है, प्रमाता के ज्ञानावरण का विलय। आवरण के तारतम्य के अनुपात में जानने की न्यूनाधिक शक्ति होती है । शान के दो क्रम है-आत्मप्रत्यक्ष और आत्म-परोक्ष । आत्म प्रत्यक्ष जितनी योग्यता विकसित होने पर जानने के लिए बाह्य सामग्री की अपेक्षा नहीं होती। आत्म-परोक्ष ज्ञान की दशा में बाह्य सामग्री का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । (इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान बाह्य सामग्री-सापेक्ष होता है। पौगलिक इन्द्रिया, पौद्गलिक मन, आलोक, उचित सामीप्य या दूरत्व, दिग, देश, काल आदि-आदि वाह्य सामग्री के अग है।
अयथार्थ ज्ञान के निमित्त प्रमाता और बाह्य सामग्री दोनो हैं। आवरण विलय मन्द होता है और बाह्य सामग्री दोषपूर्ण होती है, तब अयथार्थ ज्ञान होता है | आवरण विलय की मन्दता में बाह्य सामग्री की स्थिति महत्त्वपूर्ण होती है। उससे ज्ञान की स्थिति में परिवर्तन आता है। तात्पर्य यह है कि अयथार्थ ज्ञान का निमित्त ज्ञान-मोह है और ज्ञान-मोह का निमित्त दोषपूर्ण सामग्री है। परोक्षज्ञान-दशा में चेतना का विकास होने पर भी अदृष्ट सामग्री के अभाव मे यथार्थ बोध नहीं होता। अर्थ-बोध शान की योग्यता से नहीं होता, किन्तु उसके व्यापार से होता है। सिद्धान्त की भाषा में लब्धि प्रमाण नहीं होता। प्रमाण होता है उपयोग । लब्धि (ज्ञानावरण विलय जन्य आत्मयोग्यता) शुद्ध ही होती है। उसका उपयोग शुद्ध या अशुद्ध (यथार्थ या अयथार्थ ) दोनो प्रकार का होता है। दोषपूर्ण ज्ञान-सामग्री ज्ञानावरण के उदय का निमित्त बनती है। शानावरण के उदय से प्रमाता मूढ़ बन जाता है । यही कारण है कि वह ज्ञानकाल मे प्रवृत्त होने पर भी ज्ञेय की यथार्थता को नहीं जान पाता। ___ संशय और विपर्यय के काल मे प्रमाता जो जानता है, वह ज्ञानावरण का परिणाम नही किन्तु वह यथार्थ नही जान पाता, वह अशान ज्ञानावरण का परिणाम है। समारोपज्ञान में अज्ञान (यथार्थ-ज्ञान के अभाव) की मुख्यता होती है, इसलिए मुख्य वृत्ति से उसे ज्ञानावरण के उदय का परिणाम कहा जाता है। वस्तुवृत्त्या जितना ज्ञान का व्यापार है, वह ज्ञानावरण के विलय