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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
प्रमाण की परिभाषा का क्रमिक परिष्कार
प्रामाणिक क्षेत्र में प्रमाण की अनेक धाराएं वही, तब जैन आचार्यों को भी प्रमाण की खमन्तव्य-पोषक एक परिभाषा निश्चित करनी पड़ी। जैन विचार के अनुसार प्रमाण की आत्मा 'निर्णायक शान' है। जैसा कि आचार्य विद्यानन्द ने लिखा है
'तत्त्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं मानमितीयता। लक्षणेन गतार्थत्वात्, व्यर्थमन्यद विशेषणम् ॥'
-तत्त्वा० श्लो० १-१०-७७ ॥ पदार्थ का निश्चय करने वाला शान 'प्रमाण' है। यह प्रमाण का लक्षण पर्यास है और सब विशेषण व्यर्थ हैं किन्तु फिर भी परिभाषा के पीछे जो कई विशेषण लगे उसके मुख्य तीन कारण हैं
(१) दूसरों के प्रमाण-लक्षण से अपने लक्षण का पृथक्करण । (२) दूसरो के लाक्षणिक दृष्टिकोण का निराकरण । (३) वाधा का निरसन।
प्राचार्य सिद्धसेन ने प्रमाण का लक्षण बतलाया है-'प्रमाणं खपरामासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । स्व और पर को प्रकाशित करने वाला अबाधित ज्ञान प्रमाण है।) परोक्ष ज्ञानवादी मीमांसक ज्ञान को स्वप्रकाशित नहीं मानते। उनके मत से 'शान है'-इसका पता अर्थ प्राक्च्यात्मक अर्थापत्ति से लगता है। दूसरे शब्दो मे, उनकी दृष्टि में ज्ञान अर्थज्ञानानुमेय है। अर्थ को हम जानते हैं - यह अर्थजान (अर्थ प्राकट्य है)। हम अर्थ को जानते है इससे पता चलता है कि अर्थ को जानने वाला ज्ञान है। अर्थ की जानकारी के द्वारा ज्ञान की जानकारी होती है' यह परोक्ष शनवाद है ।। गानान्तरवेद्य शानवादी नैयायिक-वैशेषिक ज्ञान को गानान्तरवेद्य मानते हैं। उनके मतानुसार प्रथम ज्ञान का प्रत्यक्ष एकात्म-समवायी दूसरे शान से होता है। ईश्वरीय ज्ञान के अतिरिक्त सब ज्ञान परमकाशित हैं, प्रमेय हैं। अचंतन मानवादी साख्य प्रकृति-पर्यायात्मक ज्ञान को अचेतन मानते हैं। उनकी दृष्टि में ज्ञान प्रकृति की पर्याय-विकार है, इसलिए वह अचेतन है।