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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
[२५ —अर्थ है—'ज्ञान की तथ्य के साथ संगति' १)। ज्ञान अपने प्रति सत्य ही होता है। प्रमेय के साथ उसकी संगति निश्चित नहीं होती, इसलिए उसके दो रूप बनते हैं--- तथ्य के साथ संगति हो, वह सत्य ज्ञान और तथ्य के साथ संगति न हो, वह असत्य ज्ञान ।
अबाधितत्त्व, अप्रसिद्ध अर्थ ख्यापन या अपूर्व अर्थप्रापण, श्रविसंवादित्व या संवादीप्रवृत्ति, प्रवृत्तिसामर्थ्य या क्रियात्मक उपयोगिता -- ये सत्य की कसौटिया हैं, जो भिन्न-भिन्न दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत और निराकृत होती रही हैं ।
(आचार्य विद्यानन्द अबाधितत्वबाधक प्रमाण के अभाव या कथनी के पारस्परिक सामञ्जस्य को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं १६ | सम्मति- टीकाकार प्राचार्य अभयदेव इसका निराकरण करते हैं १७ | आचार्य अकलंक बौद्ध और मीमासक अप्रसिद्ध अर्थ - ख्यापन ( अज्ञात अर्थ के ज्ञापन) को प्रामाण्य का नियामक मानते हैं १८ | वादिदेव सूरि और आचार्य हेमचन्द्र इसका निराकरण करते हैं १९।
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संवादीप्रवृत्ति और प्रवृत्तिसामर्थ्य – इन दोनों का व्यवहार सर्व सम्मत है किन्तु ये प्रामाण्य के मुख्य नियामक नही बन सकते । संवादक ज्ञान प्रमेयाव्यभिचारी ज्ञान की भाति व्यापक नही है । प्रत्येक निर्णय मे तथ्य के साथ ज्ञान की सगति अपेक्षित होती है, वैसे संवादक ज्ञान प्रत्येक निर्णय मे अपेक्षित नही होता । वह क्वचित् ही सत्य को प्रकाश में लाता है।
प्रवृत्ति सामर्थ्य अर्थ सिद्धि का दूसरा रूप है। ज्ञान तब तक सत्य नहीं होता, जब तक वह फलदायक परिणामों द्वारा प्रामाणिक नहीं बन जाता । यह भी सार्वदिक सत्य नहीं है । इसके बिना भी तथ्य के साथ ज्ञान की संगति होती है । क्वचित् यह 'सत्य की कसौटी' बनता है, इसलिए यह अमान्य भी नही है ।
प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति
प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है । जानोत्पादक सामग्री में मिलने वाले गुण और दोष क्रमशः - प्रामाण्य और प्रामारय के निमित्त बनते है ० ॥ विविशेषण सामग्री से यदि ये दोनो उत्पन्न होते तो इन्हें स्वतः मान्य