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२४] जैन दर्शन में प्रमाण मोमासी धारावाही ज्ञान को प्रमाण नहीं माना। श्वेताम्वर प्राचार्य इसको प्रमाण मानते थे। दिगम्बर आचार्य विद्यानन्द ने इस प्रश्न को खड़ा करना उचित ही नहीं समझा उन्होने बड़ी उपेक्षा के साथ वताया कि
'गृहीतमगृहीतं वा, स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु, विजहाति प्रमाणताम् ।।
-श्लोक वार्तिक १-१०-७८ ॥ . स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है, चाहे वह गृहीतग्राही हो, चाहे अगृहीतग्राही। ___आचार्य हेमचन्द्र ने लक्षण-सूत्र का परिष्कार ही नहीं किया किन्तु एक ऐसी वात सुझाई, जो उनकी सूक्ष्म तर्क-दृष्टि की परिचायक है-शान स्वप्रकाशी होता अवश्य है, फिर भी वह प्रमाण का लक्षण नहीं बनता ११ कारण कि प्रमाण की भांति अप्रमाण-संशय विपर्यय ज्ञान भी स्वसविदित होता है। पूर्वाचार्यों ने "स्वनिर्णय को लक्षण में रखा है, वह परीक्षा के लिए है, इसलिए वहाँ कोई दोष नहीं आता" यह लिख कर उन्होने अपने पूर्वजो के प्रति अत्यन्त आदर सूचित किया है।
आचार्य, हेमचन्द्र की परिभाषा-'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्'- अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है। यह जैन-प्रमाण-लक्षण का अन्तिम परिष्कृत रूप है।
आचार्य तुलसी ने 'यथार्थज्ञान प्रमाणम्'-यथार्थ (सम्यक् ) ज्ञान प्रमाण है ) इसमें अर्थ पद को भी नहीं रखा । ज्ञान के यथार्थ और अयथार्यये दो रूप बाह्य पदार्थों के प्रति उसका व्यापार होता है, तव बनते हैं। इसलिए अर्थ के निर्णय का बोध 'यथार्थ' पद अपने आप करा देता है " यदि वाह्य अर्थ के प्रति ज्ञान का व्यापार नहीं होता तो लक्षण मे यथार्थ-पद के प्रयोग की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। प्रामाण्य का नियामक तत्त्व ।
प्रमाण सत्य होता है, इसमें कोई द्वैध नहीं, फिर मी सत्य की कसौटी सवकी एक नहीं है। ज्ञान की सत्यता या प्रामाण्य के नियामक तत्व भिन्नभिन्न माने जाते हैं। जैन दृष्टि के अनुसार वह याथार्थ्य है। याथार्थ्य का