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जैन दर्शन में प्रमाण मोमांसा
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उक्त परिभाषा में आया हुआ 'स्व-आभासि' शब्द इनके निराकरण की और सकेत करता है।
जैन-दृष्टि के अनुसार ज्ञान 'स्व-अवमासि' है । ज्ञान का स्वरूप ज्ञान है, यह जानने के लिए अर्थ प्राकट्य (अर्थ वोध) की अपेक्षा नहीं है ।
(१) ज्ञान प्रमेय ही नहीं, ईश्वर के ज्ञान की भांति प्रमाण भी है।
(२)ज्ञान अचेतन नहीं-जड़ प्रकृति का विकार नही, आत्मा का गुण है । ___ ज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ज्ञान को ही परमार्थ-सत् मानते है, बाह्य पदार्थ को नही । इसका निराकरण करने के लिए 'पर प्रामामि' विशेषण जोड़ा गया।
जैन दृष्टि के अनुमार शन की भाति वाह्य वस्तुओं की भी पारमार्थिकसत्ता है ।
विपर्यय आदि प्रमाण नही हैं, यह बतलाने के लिए 'बाध विवर्जित' विशेषण है।
समूचा लक्षण तत्काल प्रचलित लक्षणो से जैन लक्षण का पृथक्करण करने के लिए है।
आचार्य अकलक ने प्रमाण के लक्षण में 'अनधिगतार्थग्राही' विशेषण लगाकर एक नई परम्परा शुरू कर दी। इस पर वौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति का प्रभाव पड़ा ऐसा प्रतीत होता है। न्याय-वैशेपिक और मीमासक 'धारावाहिक शान' (अधिगत ज्ञान-गृहीतयाही ज्ञान ) को प्रमाण मानने के पक्ष में थे और बौद्ध विपक्ष मे । प्राचार्य अकलक ने वौद्ध दर्शन कासाथ दिया।
आचार्य अकलक का प्रतिबिम्ब आचार्य माणिक्य नन्दी पर पड़ा। उन्होने यह माना कि 'स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञान प्रमाणम्'-स्व और पूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण है | इममे आचार्य अकलक के मत का 'अपूर्व' शब्द के द्वारा समर्थन किया।
वादिदेव सूरी ने 'स्वपरव्यवसायिज्ञान प्रमाणम्' इस सूत्र में माणिक्य नन्दी के 'अपूर्व' शब्द को ध्यान नही दिया ।
इस काल में दो धाराए चल पड़ी। दिगम्बर आचार्यों ने गृहीत-माही