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जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा
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धार्मिक मतवादो के पारस्परिक संघर्ष ज्यों-ज्यों बढ़ने लगे और अपनी मान्यताओ को युक्तियो द्वारा समर्थित करना अनिवार्य हो गया, तब जैन नायों ने भी अपनी दिशा बदली, अपने सिद्धान्तों को युक्ति की कसौटी पर कम कर जनता के सामने रखा। इस काल में अनेकान्त का विकास हुन ।
अहिंसा की साधना जैनाचार्यों का पहला लक्ष्य था । उससे हटकर मतप्रचार करने को वे कभी लालायित नहीं हुए। साधु के लिए पहले 'आत्मानुकम्पी' (अहिंसा की साधना में कुशल ) होना जरूरी है। जैनआचायों की दृष्टि में विवाद या शुष्क तर्क का स्थान कैसा था, इस पर महान् तार्किक श्राचार्य सिद्धसेन की "वादद्वात्रिंशिका " पूरा प्रकाश डालती है४५ ।
हरिभद्रसूरि का वादाष्टक भी शुष्क तर्क पर सीधा प्रहार है। जैनाचार्यो ने तार्किक आलोक में उतरने की पहल नही की, इसका अर्थ उनकी तार्किक दुर्बलता नहीं किन्तु समतावृत्ति ही थी।
वाद- कथा क्षेत्र मे एक और गौतम प्रदर्शित छल, जल्प, वितंडा, जाति निग्रह की व्यवस्था और दूसरी ओर अहिंसा का मार्ग कि - " अन्य तीधों के साथ वाद करने के समय श्रात्म-समाधि वाला मुनि सत्य के साधक प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण का प्रयोग करे और यो वोले कि ज्यो प्रतिपक्षी अपना विरोधी न बने " ४ ६ । सत्य का शोधक और साधक " अप्रतिज्ञ होता है वह श्रमत्य-तत्त्व का समर्थन करने की प्रतिज्ञा नही रखता " - यह एक समस्या थी, इसको पार करने के लिए अनेकान्त दृष्टि का सहारा लिया गया ४७ | अनेकान्त के विस्तारक श्वेताम्बर - परम्परा में "सिद्धसेन" और दिगम्बरपरम्परा मे 'समन्तभद्र' हुए। उनका समय विक्रम की पूर्वी ६ठी शती के लगभग माना जाता है । सिद्धसेन ने ३२ द्वात्रिंशिका और सन्मति की रचना करके यह सिद्ध किया कि निर्ग्रन्थ-प्रवचन नयो का समूह विविध सापेक्ष दृष्टियों का समन्वय है ४९] एकान्त-दृष्टि मिथ्या होती है। उसके द्वारा 'सत्य' नही पकड़ा जा सकता । जितने पर समय हैं, वे सब नयवाद हैं। एक दृष्टि को ही एकान्त रूप से पकड़े हुए हैं। इसलिए वे सत्य की ओर नहीं ले जा सकते । जिन-प्रवचन में नित्यवाद, अनित्यवाद, काल, स्वभाव, नियति आदि सव टियो का समन्वय होना हैं, इसलिए यह "सत्य" का सीधा मार्ग है ।