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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने अपनी प्रसिद्ध कृति प्राप्त मीमासा मे वीतराग को आत सिद्ध कर उनकी अनेकान्त वाणी से 'सत्' का यथार्थ ज्ञान होने का विजय घोष किया। उन्होंने अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति और अवक्तव्य-इन चार भंगों के द्वारा सदेकान्तवादी सांख्य, असदेकान्तवादी माध्यमिक, सर्वथा उभयवादी वैशेषिक और अवाच्यैकान्तवादी बौद्ध के दुराग्रहवाद का बड़ी सफलता से निराकरण किया। भेद-एकान्त, अभेद एकान्त
आदि अनेक एकान्त पक्षो में दोष दिखाकर अनेकान्त की व्यापक सत्ता का पथ प्रशस्त कर दिया।
स्यादवाद-सप्तभगी और नय की विशद योजना में इन दोनो आचार्यों की लेखनी का चमत्कार आज भी सर्व सम्मत है।
प्रमाण-व्यवस्था
प्राचार्य सिद्धसेन के न्यायावतार में प्रत्यक्ष, परोक्ष, अनुमान और उसके अवयवो की चर्चा प्रमाण-शास्त्र की स्वतन्त्र रचना का द्वार खोल देती है । फिर भी उसकी आत्मा शैशवकालीन-सी लगती है। इसे यौवन श्री तक ले जाने का श्रेय दिगम्बर आचार्य अकलंक को है। उनका समय विक्रम की आठवी नौवी शताब्दी हैं। उनके 'लघीयस्त्रय', 'न्याय विनिश्चय' और 'प्रमाण-संग्रह' में मिलने वाली प्रमाण-व्यवस्था पूर्ण विकसित है। उत्तरवत्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो धाराश्रो मे उसे स्थान मिला है। इसके बाद समय-समय पर अनेक प्राचार्यों द्वारा लाक्षणिक ग्रन्थ लिखे गए। दसवीं शताब्दी की रचना माणिक्यनदी का 'परीक्षा मुख मण्डन', बारहवीं शताब्दी की रचना वादिदेवसूरी का प्रमाण नय तत्त्वालोक' और आचार्य हेमचन्द्र की 'प्रमाण-मीमांसा', पन्द्रहवी शताब्दी की रचना धर्मभूषण की 'न्यायदीपिका', १८वी शताब्दी की रचना यशोविजयजी की 'जैन तर्क भाषा'-यह काफी प्रसिद्ध है। इनके अतिरिक्त बहुत सारे लाक्षणिक ग्रन्थ अभी तक अप्रसिद्ध भी पड़े हैं। इन लाक्षणिक ग्रन्थों के अतिरिक्त दार्शनिक चर्चा और प्रमाण के लक्षण की स्थापना और उत्थापना में जिनका योग है, वे भी प्रचुर मात्रा में हैं।