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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
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(४) प्रतिलोमन - सर्व सामर्थ्य - दशा में विवादाध्यक्ष अथवा प्रतिवादी को प्रतिकूल बनाकर, वाद करना ।
(५.) संसेवन - अध्यक्ष को प्रसन्न रख वाद करना ।
(६) मिश्रीकरण या मेटन — निर्णय दाताओं में अपने समर्थको को मिश्रित करके अथवा उन्हे ( निर्णय दाताओं को )
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प्रतिवादी का विरोधी बनाकर वाद करना ।
प्रमाण व्यवस्था का आगमिक आधार
( १ ) प्रमेय :
प्रमेय अनन्त धर्मात्मक होता है । इसका आधार यह है कि वस्तु में
अनन्त पर्यव होते हैं।
(२) प्रमाण :--
प्रमाण की परिभाषा है—व्यवसायी ज्ञान या यथार्थ ज्ञान । इनमें पहली का आधार स्थानात ( ३-३-१८५ ) का 'व्यवसाय' शब्द है । दूसरी का आधार ज्ञान और प्रमाण का पृथक-पृथक् निर्देशन है। ज्ञान यथार्थ और . अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है, इसलिए ज्ञान सामान्य के निरूपण में ज्ञान पांच बतलाये हैं 3
प्रमाण यथार्थ ज्ञान ही होता है । इसलिए यथार्थ ज्ञान के निरूपण में वे दो बन जाते हैं ४० । प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
(३) अनुमान का परिवार :
अनुयोग द्वार के अनुसार श्रुतज्ञान परार्थ और शेष सब ज्ञान स्वार्थ हैं । इस दृष्टि से सभी प्रमाण जो ज्ञानात्मक हैं, स्वार्थ हैं और वचनात्मक हैं, वे परार्थ हैं। इसीके आधार पर आचार्य सिद्धसेन, ४ १ वादी देवसूरि प्रत्यक्ष को परार्थ मानते हैं *" |
अनुमान, श्रागम आदि की स्वार्थ परार्थ रूप द्विविधता का यही आधार है। (४) प्रमिति :
प्रमाण का साक्षात् फल है अज्ञान निवृत्ति और व्यवहित फल है हेयबुद्धि और मध्यस्थबुद्धि | इसका श्राधार श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, प्रत्याख्यान और संयम का क्रम है। श्रवण का फल ज्ञान, ज्ञान का विज्ञान, विज्ञान का