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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा वाद के दोष (१) तज्जात दोष-वादकाल में आचरण आदि का दोष बताना अथवा
प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर मौन हो जाना। '' (२) मतिभग दोष-तत्त्व की विस्मृति हो जाना। - . (३) प्रशास्तु दोष-समानायक या सभ्य की ओर से होने वाला प्रमाद । (४) परिहरण दोष-अपने दर्शन की मर्यादा या लोक-रूढ़ि के अनुसार
अनासेव्य का आसेवन करना अथवा आसेव्य का आसेवन नहीं करना अथवा वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु को
सम्यक् प्रतिकार न करना। (५) स्वलक्षण दोष-अन्याप्ति, अतिव्यासि, असम्भव । (६) कारण-दोष-कारण ज्ञात न होने पर पदार्थ को अहेतुक मान लेना1 (७) हेतु-दोष-असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिकं । (८) संक्रामण-दोष-प्रस्तुत प्रमेय में अप्रस्तुत 'प्रमेय का समावेश करना
अथवा परमत का अज्ञान जिस तत्त्व को स्वीकार नहीं _ . करता उसे उसका मान्य तत्त्व बतलाना। ' (६) निग्रह-दोष :-बल आदि से निगृहीत हो जाना। (१०) वस्तु दोष (पक्ष-दोष) १-प्रत्यक्षनिराकृत-शब्द अश्रावण हैं।
२-अनुमान " शब्द नित्य है। ३-प्रतीति , शशी अचन्द्र है। ४- स्व वचन , मैं कहता हूँ, वह मिथ्या है। ५--लोकरूढ़ि. , मनुष्य की खोपड़ी पवित्र है।
विवाद३८
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(१) अपसरण-अवसर लाभ के लिए येन-केन प्रकारेण समय बिताना। (२) उत्सुकीकरण-अवसर मिलने पर उत्सुक हो जय के लिए वाद करना। (३) अनुलोमन-विवादाध्यक्ष को 'साम' आदि नीति के द्वारा अनुकूल
बनाकर अथवा कुछ समय के लिए प्रतिवादी का पक्ष स्वीकार कर उसे अनुकूल बनाकर वाद करना।