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6. लोक-संज्ञा – (Instinct of Universe) -
हेय होने पर भी लौकिक-रूढ़ि, अंधविश्वास आदि का अनुसरण करने की बलवती वृत्ति लोकसंज्ञा कहलाती है। मतिज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम से संसार के रुचिकर और सुन्दर पदार्थों को या लोक-प्रचलित शब्दों के अर्थों को विशेष रूप से जानने की तीव्र अभिलाषा लोकसंज्ञा है। आचारांगनियुक्ति-टीका में लोकसंज्ञा का कारण मोहनीयकर्म का उदय और ज्ञानावरणीय-कर्म का क्षयोपशम बताया गया है।
7. क्रोध-संज्ञा – (Instinct of Anger) -
जीव की जीव एवं अजीव के प्रति आवेशरूप मनःस्थिति को क्रोधसंज्ञा कहते हैं। क्रोध मोहनीय-कर्म के उदय से प्राणी के मुख और शरीर में विकृति होना, नेत्र लाल होना तथा ओंठ फड़कना आदि क्रोधवृत्ति के अनुरूप चेष्टा करना क्रोधसंज्ञा है।
योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्रसूरि जी ने क्रोधसंज्ञा के स्वरूप को वर्णित किया है। क्रोध शरीर और मन को संताप देता है, क्रोध बैर का कारण है, क्रोध दुर्गति की पगडण्डी एवं मोक्ष-सुख में अर्गला के समान है। गीता में श्रीकृष्ण ने काम, क्रोध तथा लोभ को आत्मा के मूल स्वभाव का नाश करने वाला नरक का द्वार बताया है।
8. मान-संज्ञा – (Instinct of Pride) -
मान मोहनीय-कर्म के उदय से अहंकार, दर्प, गर्व आदि के रूप में जीव की परिणति को मानसंज्ञा कहते हैं। मान एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है -"अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ मानता है। अतः
29 योगशास्त्र - /प्रकाश 4/गाथा 9
30 गीता - अ. 16/श्लो. 21 JI मायावेदनीये नाशुभसंक्लेशाद्नृत संभाषणा दिक्रिया मायासंज्ञा । - अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-7, पृ.सं. 304 32 अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं – सू.कृ./अ 13/गाथा 8
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