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मैथुनसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा नौवें गुणस्थान के पूर्वार्द्ध तक होती है। नारकियों में सबसे कम मैथुनसंज्ञा होती है। मनुष्यों में यह संज्ञा सबसे अधिक होती है, क्योंकि उनमें इसका सद्भाव बहुत लम्बे समय तक बना रहता है।
4. परिग्रह-संज्ञा – (Instinct of appropriation) -
परिग्रह का त्याग न होने से, लोभ कषाय-मोहनीय का उदय होने से, परिग्रह को देखने से उत्पन्न होने वाली बुद्धि से तथा परिग्रह के विषय में विचार करते रहने से परिग्रहसंज्ञा होती है। यह संज्ञा दसवें गुणस्थान तक होती है। तिर्यंचों में परिग्रहसंज्ञा सबसे कम तथा देवों में सबसे अधिक पायी जाती है, क्योंकि स्वर्ण और रत्नों में उनकी आसक्ति बनी रहती है। 5. ओद्य-संज्ञा – (Instinct of Ogha) -
पूर्वजन्मों के संस्कार आदि से जीवों में जो भाव प्रकट होते हैं, उसे ओघ संज्ञा कहते हैं, जैसे- बालक की जन्म से ही स्तनपान करने की जो प्रवृत्ति होती है, वह सिखाई नहीं जाती, वह पूर्व संस्कारों के परिणामस्वरूप स्वतः प्रकट होती है। बिना उपयोग के कार्य करने की प्रवृत्ति को ओघ संज्ञा कहते हैं, जैसे बैठे-बैठे पांव हिलाना, होंठ चबाना, निष्प्रयोजन वृक्ष पर चढ़ जाना, कंकर फेंकना, गुनगुनाना इत्यादि। मतिज्ञानावरणीय-कर्म के क्षयोपशम के फलस्वरूप संसार के रुचिकर पदार्थों को अथवा लोक-प्रचलित शब्दों के अर्थ को जानने की अभिलाषा को ओघ संज्ञा कहते हैं। भूकम्प आदि आपदाओं के आने के पूर्व ही ओघसंज्ञा से अनेक पशु-पक्षी सुरक्षित स्थानों को चले जाते हैं।
25 तत्त्वार्थसार – 3/36 का भाषार्थ, पृ. 46 26 प्रज्ञापनासूत्र - 8/5/9 27 चउहि ठाणेहि परिग्गहसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा अविमुत्तियाए
लोभवेयाणि ज्जस्स कम्मस्स उदएणं मतीए तदटठोवअओगेणं ।। - ठाणं-4/582
28 प्रज्ञापनासूत्र - 8/8,9
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