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1. आहार-संज्ञा - (Food Seeking instinct) -
___जीव में उत्पन्न आहार की अभिलाषा को आहारसंज्ञा कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार, अन्तरंग में असातावेदनीय-कर्म या क्षुधावेदनीय-कर्म के उदय से तथा बहिरंग में आहार को देखने से, उस ओर उपयोग जाने से और पेट खाली होने से जीव को जो आहार करने की इच्छा होती है, उसे आहारसंज्ञा कहते हैं।2 दिगम्बरपरम्परा के अनुसार, यह संज्ञा पहले से छठवें गुणस्थान तक रहती है, जबकि श्वेताम्बर–परम्परा में प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक इसकी सत्ता मानी गई है।
2. भय-संज्ञा – (Instinct of fear)
शक्ति की हीनता से, भयमोहनीय-कर्म (नोकषायमोहनीय) के उदय से, भय की बात सुनने आदि से और भय के विषय में सोच-विचाररूप उपयोग से भय-संज्ञा उत्पन्न होती है। सात प्रकार के भयों के भाव को भयसंज्ञा कहते हैं। ये सात भय हैं - 1. इहलोक-भय, 2. परलोक-भय, 3. आजीविका-भय, 4. अकस्मात्-भय, 5. अपयश-भय, 6. मरण-भय, 7. आदान–भय। यह संज्ञा आठवें गुणस्थानक तक होती है। मनुष्यों में भयसंज्ञा सबसे कम तथा नारकियों में सबसे अधिक होती है, क्योंकि उनमें मृत्युपर्यंत लगातार भय बना रहता है। 3. मैथुन-संज्ञा – (Instinct of sex or sex drive) -
अन्तरंग में वेदमोहनीय (नोकषाय) के उदय से तथा बहिरंग में कामोत्तेजक कथा सुनने से, गरिष्ठ रसयुक्त भोजन करने से, मैथुन की ओर उपयोग जाने से तथा कुशील मनुष्यों की संगति करने से जो मैथुन की इच्छा होती है, उसे
2 आहारदसणेण य तस्सुवजोगेण ओमकोठाए
सादिदरूदीरणाए हवदि हु आहार सण्णा हु। – गोम्मटसार जीवकाण्ड-134 21 चउहि ठाणेहिं भयसण्णा समुप्पज्जति, तं जहा हीणसत्तताए।
भयवेणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए? तदट्ठोओगेणं।। - स्थानांगसूत्र - 4/580 ||
24 प्रज्ञापनासूत्र ' 8/725 का विवेचन।
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