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गुणस्थानक्रमारोह.
नाभी समझ लेनाकि केवल मोहनीयकर्मकेही नष्ट होनेसे जिनेश्वरत्वपद प्राप्त नहीं होता किन्तु साथही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय, इन चारोंही कर्मका नाश होनेपर जिनेश्वरपद प्राप्त होता है । मूल श्लोक हतमोह कहने से शास्त्रकारने आठही कर्मके अन्दर मोहनीयकर्मी प्रधानता बताई है । जैसे इन्द्रियों में रसनाइन्द्रिय, व्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत और गुप्तियों में मनोगुप्ती दुर्जेय है वैसेही आठ कर्मके अन्दर मोहनीयकर्म दुर्जेय है, अत एव इस कर्मकी की प्रबलतासूचन करनेके लिएही हतमोह विशेषण दिया है। मोहनीयकर्मके नष्ट होनेपर शेष कर्म सुखपूर्वक नष्ट हो सकते हैं । जिस प्रकार तालवृक्षका ऊपरि भाग छेदन करने से स्वयमेवही वह नष्ट हो जाता है वैसेही मोहनीयकर्मके नष्ट होनेपर बाकीके घाति अघातिकर्म अवश्यमेव नष्ट हो जाते हैं। अतः हतमोह जिनेश्वरदेवको नमस्कार करके संक्षेपसे कुछ गुणस्थानोंका स्वरूप कथन करते हैं |
प्रथम चार श्लोकोंद्वारा चतुर्दशगुणस्थानोंके नाम बताते हैं । चतुर्दशगुणश्रेणिस्थानकानि तदादिमम् । मिथ्यात्वाख्यं द्वितीयं तु स्थानं साखादनाभिधम् ॥२॥ तृतीयं मिश्रकं तुर्यं सम्यग्दर्शनमत्रतम् । श्राद्धत्वं पञ्चमं षष्ठं प्रमत्तश्रमणाभिधम् ॥ ३ ॥ सप्तमं स्वप्रमत्तं चापूर्वात्करणमष्टमम् । नवमं चानिवृत्त्याख्यं दशमं सूक्ष्मलोभकम् ॥ ४ ॥ एकादशं शान्तमोहं द्वादशं क्षीणमोहकम् | त्रयोदशं सयोग्याख्यमयोग्याख्यं चतुर्दशम् ॥ ५ ॥ श्लोकार्थ-चतुर्दश गुणस्थानक हैं जिसमें प्रथम मिथ्यात्व ना