________________
(६)
गुणस्थानकमारोह.
पर इसका कैफ चढ़ता है उसे अनन्ते भवोंतक भी होस नहीं लेने देता । जिस प्रकार मदिरापान करनेवाले मनुष्य मदिराके नसेसे बेभान होकर गन्दीमोरियें आदि स्थानों में मुँह गाड़कर पड़े रहते हैं, उस समय विवेकी मनुष्योंके हृदयमें उनकी करुणामयी दशा देखकर दया संचार होता है । उसी तरह मिथ्यात्वमोहित प्रागियोंकोभी नीचादि गतियों में अनेक प्रकारकी विचित्र दशाओंको धारण करते देखकर उनके ऊपर करुणाभाव धारण करना चाहिये
अब मिथ्यात्वकी स्थिति बताते हैंअभव्याश्रितमिथ्यात्वेऽनाद्यनन्तास्थितिर्भवेत् । साभव्याश्रितमिथ्यात्वेऽनादिसान्तापुनर्मता ॥९॥
श्लोकार्थ-अभव्याश्रितमिथ्यात्वमें अनादि अनन्त स्थिति है और भव्याश्रितमिथ्यात्वमें अनादि सान्त मानी है ॥
व्याख्या-अभव्यजीवों आश्रित सामान्यसे अव्यक्तमिथ्यात्वकी स्थिति अनादि अनन्त है और भव्यजीवोंके आश्रित अनादि सान्त है। यह मिथ्यात्वकी स्थिति सामान्यसे कथन की है, यदि मिथ्यात्व गुणस्थानकी अपेक्षा विचारें तो अभव्यजीवों में मिथ्यात्वकी स्थिति सादि अनन्त है और भव्यजीवोंके अन्दर सादि सान्त है । मिथ्यात्वगुणस्थानमें रहा हुआ जीव एकसौ बीस बन्धपायोग्य कर्म प्रकृतियों में से तीर्थकर नामकर्म तथा आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग) इन तीन प्रकृतियोंको वर्ज कर एकसौसतरह प्रकृतियोंको बाँधता है, क्योंकि तीर्थकरनामकर्म विना सम्यक्त के नहीं बन्ध सकता । आहारकद्विकभी सर्व विरति विना नहीं बन्ध सकता, इस लिए इन तीन कर्म प्रकृतियोंको बन्धमेंसे निकाल दिया है । एक सौ बाईस उदयपायोग्य कर्म प्रकृतियों में से मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, आहारकद्विक तथा