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छठा गुणस्थान. (५९) आनन्द मानता है, वैसे ही संसारी जीव अनादिकालसे कर्मरूप मदिराके नसेसे मस्त होकर पुनः पुनः संसारमें परिभ्रमण करानेवाले दुष्कृत्योंमें ही प्रवृत्ति करके आनन्दित होता है और उस दुष्कर्म जन्य आनन्दसे जीवके अन्तःकरणमें जो विचार पैदा होता है, उसे ही शास्त्रकारोंने रौद्र या भयानक ध्यान कहा है । इस रौद्र ध्यानके भी पूर्वोक्त आर्त ध्यानके समान चार भेद होते हैं। उववाई सूत्र में गणधर भगवान फरमाते हैं-रुद्दे ज्झाणे चउबिहे पण्णत्ते तंजहा, हिंसाणुबंधी, मोसाणुबंधी, तेणाणुबंधी, सरक्खणाणुबंधी, भावार्थ-रौद्र ध्यान चार प्रकारका होता है, प्रथम हिंसानुबन्धि रौद्र-हिंसक कर्मोंकी अनुमोदना-प्रशंसा करना, २ मृषानुबन्धि रौद्र-मिथ्या कर्मोंकी अनुमोदना प्रशंसा करनेरूप, ३ चोरी करना वगैरह कर्मोंका अनुमोदनरूप और ४ संरक्षणानुबन्धि रौद्र-विषय सुख संबन्धि कर्मोंको रक्षण करनेकी अनुमोदना, या प्रशंसारूप समझना। अब इन्हीं चारों भेदोंका भिन्न भिन्न तया स्पष्ट स्वरूप लिखते हैं । संसार भरमें किसी भी जीवको दुःख इष्ट नहीं । सर्व जीव सुखाभिलाषी हैं, परन्तु वे बिचारे कर्मके वश होकर पराधीनता, निराधारता, असमर्थता तथा दीन हीनतादि अनेक प्रकारके दुःखोंको धारण करते हैं । कर्मके विवश होकर ही जीव एकेन्द्रियादिकी अवस्थाको प्राप्त होते हैं । संसारमें सर्व जीव यथाशक्ति सुख प्राप्त करनेके उपायोंमें सदा काल लगे रहते हैं, किन्तु कितने एक जीवोंको पूर्व भवमें कुछ सुकृत न करनेसे यहाँ पर ताजिन्दगी सुख प्राप्त करनेके उपाय करते करते मर पचने पर भी इच्छित सुख नहीं मिलता।
कर्मवश पूर्वोक्त दशाको प्राप्त हुए असमर्थ, दुखी, दीन, हीन 'प्राणियोंको अपने स्वार्थवश या किसी मतलबसे या विना ही