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तेरहवाँ गुणस्थान. (१५७) जिन जिन पदोंकी आराधना करनेसे पाणी तीर्थकर नाम कर्म बाँधता है अब उन्हीं पदोंका प्रसंगसे तीन श्लोकों द्वारा नाम बताते हैं-अर्ह, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहु श्रुते, तपस्विषु । वात्सल्यमेतेषु अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगी च ॥१॥ दर्शनविनयौ आवश्यकानि च शीलवते निरतिचारता । क्षण लव तपस्त्यागा, वैयावृत्यं समाधिश्च ॥ २॥ अपूर्वज्ञानग्रहणं, श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना । एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥३॥ इन तीन श्लोकों में बताये हुए पदोंकी आराधना करनेसे प्राणी तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन करता है। - अब तीर्थंकर भगवानका महिमा कहते हैंस सर्वातिशयैर्युक्तः, सर्वामरनरनतः। ... चिरं विजयते सर्वोत्तमं तीर्थ प्रवर्तयन् ॥ ८६ ॥
श्लोकार्थ-सर्वातिशयोंसे युक्त तथा सर्व देवता और मनुप्योंद्वारा नमस्कृत तीर्थंकर प्रभु सर्वोत्तम तीर्थको प्रवर्तीते हुए चिरकाल तक विजय प्राप्त करते हैं । ___ व्याख्या-तीर्थंकर प्रभुके चौंतीस अतिशय होते हैं, अर्थात् जो प्राणी तीर्थकर पद प्राप्त करता है, तीन जगतके सर्व प्राणियोंसे उसका सर्वोत्तम पुण्योत्कर्ष होता है, इसीसे पूर्वोक्त चौंतीस अतिशय नामक उनके चौंतीस प्रभाव विशेष होते हैं। जिसमें चार प्रभाव या अतिशय उनके जन्मसे ही होते ह और बाकीके केवल ज्ञानोत्पत्ति के बाद देवता लोगोंके किये हुए होते हैं । इन पूर्वोक्त अतिशयोंका संक्षेपसे स्वरूप इस प्रकार समझना, १ तीर्थकर प्रभुका श्वासोश्वास जन्मसे लेकर कमल-परिमलके समान सुगन्धमय होता है । २ तीर्थकर भगवानके शरीरमें जो रुधिर होता