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चौदहवाँ गुणस्थान. (१८१) अस्तित्व न होनेसे वहाँ पर किसी भी पदार्थकी गति नहीं हो सकती॥ . सिद्ध परमात्मा प्राग् भार भूमि (सिद्ध शिला) के ऊपर लोकान्तमें जिस स्थितिमें विराजते हैं। अब दो श्लोकों द्वारा उसका वर्णन करते हैंमनोज्ञा सुरमितन्वी, पुण्या परमभासुरा । प्राग्भारा नाम वसुधा, लोकमूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥१२६॥ नृलोकतुल्य विष्कम्भा, सितछत्रनिभा शुभा। ऊर्ध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धा, लोकान्ते समवस्थिताः
युग्मम् ॥ ... श्लोकार्थ-लोकके शिखर पर मनोज्ञ, सुगन्धवाली, पतली, पवित्र, और परमभास्वर प्राग्भारा नामकी पृथ्वी है । वह पृथ्वी मनुष्य लोकके समान विस्तारवाली और श्वेत छत्रके समान आकारवाली है, उस भूमिके ऊपर लोकके अन्तमें सिद्ध भगवान स्थित रहते हैं ॥ . . व्याख्या-करिके समूहसे भी अधिक मुगन्धवाली, मनुष्य क्षेत्रके समान विस्तारवाली तथा अति सुकोमल स्पर्शवाली, परम पवित्र, स्फटिक रत्नके समान देदीप्यमान, श्वेत छत्रके समान आकारवाली याने विकसित श्वेत छत्रकी उपमाको धारण करनेवाली तथा चिकनी और सकल शुभोदयमयी, इन पूर्वोक्त विशेपणोंवाली चतुर्दश राज प्रमाण लोकके ऊपरी भागमें प्रारभारा नामकी एक भूमि है. उसीको सिद्धशिला कहते हैं। वह प्रारभारा भूमि या सिद्धशिला सर्वार्थ सिद्ध विमानसे बारह योजन ऊपर है, वह मध्य भागमेंसे आठ योजनकी मोटी है और मध्य भागसे