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क्षपकश्रेणीका स्वरूप. (१९५) मोक्ष प्राप्त करता है । मोहनीय कर्मकी शेष इक्कीस प्रकृतियोंको खपानेके लिए उद्यम करता हुभा जीव यथा प्रत्यादि तीन करण करता है । तीनों करणोका स्वरूप पूर्ववत् ही समझना चा. हिये, परंतु यहाँ पर वह अप्रमत्त गुणस्थानमें यथाप्रवृत्ति करण अपूर्वकरण गुणस्थानमें अपूर्वकरण और ९ वें अनिवृत्तिबादरगुणस्थानमें अनिवृत्तिकरण करता है । अपूर्वकरण गुगस्थानमें स्थितिघातादिक करके अप्रत्याख्यानीय तथा प्रत्याख्यानीय कषायोंको इस प्रकार खपाता है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्रथम समयमें ही उस कषायाष्टककी पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण मात्र स्थिति रहती है । अब अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें स्त्यानर्द्धि त्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानदि) नरकद्विक ( नरकगति-नरकानुपूर्वी) तिर्यश्चद्विक (तियच गति तिर्यंचानुपूर्वी) तथा एकेन्द्रियजाति, द्वींद्रियजाति, तेन्द्रियजाति, चौरिन्द्रियजाति, स्थावर नामकर्म, आतापनाम कर्म, उद्योतनामकर्म, सूक्ष्मनाम कर्म और साधारण नामकर्म एवं सोलह प्रकृतियोंको उद्वेलन संक्रमण द्वारा प्रतिसमय उखेड़ता है, और जब पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति रहे तब इन पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियोंको प्रतिसमय बँधती हुई प्रकृतियोंमें गुणसंक्रमणसे खपाते खपाते जब अनिवृत्ति बादर गुणस्थानके असंख्य विभाग व्यतीत हो जावें, और एक विभाग शेष रहे उस वक्त पूर्वोक्त सर्व प्रकृतियोंको क्षीण करता है। कितने एक आचार्योंका ऐसा मत है कि अप्रत्याख्यानीय तथा प्रत्याख्यानीय आठ कषाय, जिन्हें पूर्वमें खपाने लगा था उन्हें पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों के बीच में ही खपा देता है । दूसरा मंतव्य ऐसा है कि प्रथम पूर्वोक्त आठ कषाय खपा कर पीछे सोलह प्रकृतियोंको खपाता है।