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(१९६) गुणस्थानक्रमारोह. पूर्वोक्त प्रकारसे आठ कषायों अथवा मतभेदसे सोलह प्रकृतियोंको क्षीण करके पश्चात् नपुंसक वेद खपाता है, तदनन्तर स्त्रीवेद क्षय करता है, इसके बाद हास्यादिक नोकषायका दल जो क्षेपण करते शेष रहा है, उसे संज्वलनके क्रोध प्रक्षेपण करता है। अब पुरुषवेदका बन्धादिक विच्छेद हो जाने पर आवलिका मात्र शेष कालमें करण विशेष करके पूर्वोक्त नोकषावके शेष दलियोंको संज्वलन क्रोधके अंदर गुणसंक्रम तया प्रक्षेपण करता है
और संज्वलन क्रोधका बन्धादिक विच्छेद हो जाने पर आवलिका शेष प्रति करण विशेष करके संज्वलन मानके अन्दर गुणसंक्रमण तया प्रक्षेपण करता है। यहाँ पर करण शब्दसे आत्माका अध्यवसाय समझना चाहिये, संज्वलन मानका बन्ध विच्छेद हो जाने पर पुनः आवलिका शेष कालमें करण विशेष करके संज्वलनकी मायामें गुणसंक्रमण तया प्रक्षेपण करता है। एवं संज्वलनके लोभपर्यन्त समझना, किन्तु जब संज्वलनके लोभका बन्ध विच्छेद हो जाता है तब उस संज्वलनके अत्यन्त सूक्ष्मलोभको आत्माके अध्यवसाय रूप पूर्वोक्त करण विशेष द्वारा क्षीण करता है, अर्थात् सूक्ष्मसंपराय गणस्थानमें जो संज्वलनका सूक्ष्म लोभ सत्तामें शेष रहा था, उसे भी निर्मूलित कर देता है, एवं सूक्ष्म संपराय गुणस्थानके अन्तमें मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंको सत्तामें से नष्ट करता है, नपुंसकवेद खपाकर स्त्रीवेद खपाता है, इसके बाद हास्यादि छः प्रकृतियों को समकालमें ही खपाने के लिए प्रयत्न करता है। इस तरह अन्तर्मुहूर्त्तमात्र कालमें नोकषाय कानाश तथा साथमें ही पुरुषवेदका बन्ध उदय और उदारणा विच्छेद होती है, तथा एक समय कम दो आवलिका कालमें जो पुरुषवेदका दलिक बाँधा हो उसे वर्जकर बाकी सब सत्तासे नष्ट कर देता है । अब वह आपक