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क्षपक श्रेणीका स्वरूप.
( १९७ ) अवेदक कहा जाता है । जो जीव पुरुषवेदमें क्षपक श्रेणी करता है उसका यह विधि समझना । जो जीव नपुंसक वेदोदय में श्रेणी प्रारंभ करता है, वह जीव प्रथम स्त्रीवेद तथा नपुंसकवेद, इन दोनोंको समकालमें खपाता है और उसी समयमै पुरुषवेदका बन्धादिक विच्छेद करता है । तदनन्तर अवेदक हुआ हुआ पुरुषवेद तथा हास्यादि ६ प्रकृतियोंको समकालमें ही क्षय करता है। जो जीव स्त्रीवेदोदयमें श्रेणी प्रारंभ करता है वह जीव प्रथम नपुंसकवेद नष्ट करता है और पीछे स्त्रीवेद क्षय करता है, तथा इन दोनों वेदोंको क्षय करते समय ही पुरुषवेदका बन्ध उदय और उदीरणाका विच्छेद करता है, इसके बाद पुरुषवेद तथा हास्यादि ६ प्रकृतियोंको क्षय करता है ।
इस प्रकार क्षीण कषाय होकर शेष कर्प प्रकृतियों की स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी गुणसंक्रम वगैरह पूर्वोक्त प्रकार से ही करता है। क्षीण कषायकालका संख्यातवाँ भाग व्यतीत होवे तब तक तो पूर्वोक्त प्रकारसे ही स्थितिघातादिक करता है. मगर जब एक भाग शेष रहता है, उस वक्त पांच ज्ञानावरणीय, पांच अन्तराय, छः दर्शनावरणीय (चार दर्शनावरणीय और दो निद्रा) एवं सोलह प्रकृतियों की सत्तास्थिति कम करता हुआ क्षीण कषायकालमें ही समान करता है, फिर सोलहकी सोलह प्रकृतियोंको समान कालमें ही उदय उदीरणा द्वारा यावत् एक समय अधिक आवलिका मात्र शेष रहे वहाँ तक वेदता है, इसके बाद उदीरणा बंद हो जाती है, किन्तु एक आवलिका मात्रमें उदय द्वारा वेदता है। सो क्षीण कषायके दो अंतिम समय पर्यन्त वेदता है, अन्तिम समय में पूर्वोक्त सोलह प्रकृतियों को सत्ता मेंसे नष्ट कर देता है । इसके अगले समय से ही व्यवहारनयकी अपेक्षा से सयोगी केवली