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( १९२) गुणस्थानक्रमारोह.
इस प्रकार बहुतसे स्थितिखंड खपजाने पर मिथ्यात्वका दल, केवल आवलीका मात्र रहता है । मिश्र तथा सम्यक्त्व, इन दोनोंका दल पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रमाण रहता है, वहाँ पर खंडित किये हुवे मिथ्यात्वके दलियोंका मिश्र तथा सम्यक्त्वमें प्रक्षेप करता है, और मिश्रके दलियोंका फक्त सम्यक्त्वमें प्रक्षेप करता है तथा सम्यक्त्वके शेष दलियोंको सम्यक्त्वकी नीचेकी स्थितिमें डालता है, तत्पश्चात् मिथ्यात्व दलिक तो आवलिक मात्र रहता है. उसको भी स्तिबुक संक्रम द्वारा सम्यक्त्वमें संक्रमाकर मिथ्यात्वको तो जड़मूलसे सर्वथा नष्ट करता है, इसके बाद मिश्रका तथा सम्यक्त्वका असंख्यात भाग करके उसे खंडित करता है, शेष एक भाग रखता है, अब बाकी रहे हुवे के असंख्याते भाग करता है और उनमेंसे एक भाग रखकर बाकीके सर्व भागोंको खंडित कर डालता है।
इस प्रकार करते करते कितने एक स्थितिखंड खपजाने पर मिश्र मोहनीय एक आवलिका मात्र रखता है और उस वक्त सम्यक्त्व मोहनीयकी स्थिति सत्ता केवल आठ वर्ष प्रमाणकी रहती है। इस समय वह दर्शन मोहनीयका क्षपक कहा जाता है
और निश्चयनयकी अपेक्षासे यहाँ पर उसके सर्व विघ्न शान्त हुवे माने जाते हैं । इसके बाद सम्यक्त्व मोहनीयके स्थिति खंडको अंतर्मुहूर्त प्रमाण उखेड़ता है, और उसके दल उदयसमयसे प्रारंभ करके समस्त स्थिति सत्ता समय समय संक्रमाता है, उसमें भी उदयसमय सबही स्तोक संक्रमाता है और उससे दूसरे समय असंख्य गुण संक्रमाता है तथा तीसरे समय उससे भी असंख्य गुण संक्रमाता है, इस प्रकार उत्तरोत्ततर समय असंख्य गुणा संक्रमण करता करता गुणश्रेणीके मस्तक पर्यन्त जाता है,