________________
(१८२) गुणस्थानक्रमारोह. लेकर क्रमसे पतले पनमें प्रान्त भागोंमें तीक्ष्ण धाराके समान है। उस भूमिसे एक योजन ऊपर जाकर लोकाकाशका अन्त आता है, उस एक योजनका जो चौथा कोस है उसके छठे भागमें सिद्धात्माओंकी अवगाहना लोकान्तको स्पर्श करके रहती हैं, अर्थात् पूर्वोक्त स्थानमें लोकालोकके मध्यभागमें सिद्धात्माओंके आत्मप्रदेश स्थित रहते हैं । सिद्धान्तमें फरमाया है-ईसी पन्भाराए, उवरि खलु जोयणम्मि जो कोसो। कोसस्स य छन्माए, सिद्धाणो गाहणा भणिया ॥ १ ॥ जो ऊपर लिख चुके हैं सोही इस गाथाका अर्थ समझना. __ अब सिद्धात्मप्रदेशोंकी अवगाहनाका आकार बताते हैंकालावसरसंस्थाना, या मूषागतसिक्थका । तत्रस्थाकाशसंकाशाकारा सिद्धावगाहना ॥१२८॥
श्लोकार्थ-जैसे मूषागत मौम तत्रस्थ आकाशके सदृश आकारवाला होता है, वैसे ही कालावसरमें जो संस्थान है तदाकार सिद्धावगाहना होती है ॥ ___ व्याख्या-सुनारके वहाँ पर जो सुवर्ण गालनेकी गोठाली होती है, उसके अन्दर जैसे आकाश प्रदेश हों तदाकार ही उसमें डाले हुए गरम मौमकी आकृति हो जाती है, बस वैसे ही केवली भगवानका काल करते समय जैसा संस्थान-जैसी आकृति होती है, उसी आकारमें सिद्धावगाहना होती है, अर्थात् केवली प्रभु काल करते समय खड़ी आकृतिमें होंगे तो उनकी अवगाहना तदाकार होगी, यदि केवली भगवान बैठे हुए काल करें तो उनके आत्मप्रदेश तदाकार अवगाहनावाले हो जायेंगे, गरज काल करते समय केवली महात्मा जिस आकृतिमें होंगे उसी काकृतिमें उनकी अवगाहना होगी। यद्यपि रूपी वस्तुको ही साकार कर