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(१८८) गुणस्थानक्रमारोह. है । ज्ञानाभाव मोक्ष मानना यह भी दूषित है, क्योंकि ज्ञान आस्माका अविनाभावी गुण है, अतः ज्ञान और आत्माका तादात्म्य संबन्ध है, आत्माका लक्षण ही ज्ञान है । जब लक्षण उड़ जाय तो फिर लक्ष्य कैसे रह सकता है ? अर्थात् आत्माके ज्ञान गुणका अभाव होनेसे आत्मा गुणीका भी अभाव हो जायगा, तब फिर मोक्ष किसको प्राप्त हुआ? इस लिए यह मन्तव्य भी अशुद्ध है। जो आत्माको मोक्षमें सर्वव्यापी मानते हैं, उनका मत भी मन कल्पित ही समझना चाहिये, क्योंकि आत्मा किसी भी प्रमाणसे सर्वलोक व्यापी सिद्ध नहीं हो सकती। यदि पाठकोंको यह विषय विशेष तया जानना हो तो स्याद्वाद-रत्नाकरावतारिका नामक ग्रंथ देख लें । जो लोग मोक्षसे पुनः संसारमें अवतार लेना और पुनः मोक्षमें जाना मानते हैं उनका भी मनकल्पित मन्तव्य है, क्योंकि जब आत्माको मोक्षसे भी लौटकर पुनः संसारमें आना पड़े तो फिर वह मोक्ष ही काहेका ? वह तो एक भाँडोंका स्वाँग हुआ, इस लिए यह मन्तव्य भी दोषग्रसित है । जो मोक्षमें भी विषय सुख मानते हैं, वे केवल पुद्गलानन्दी ही हैं, उन्हें सिवाय विषय लोलुपताके आत्मस्वरूपका भान ही नहीं है, इस लिए युक्ति युक्त मन्तव्य न होनेसे इन सबकी मानी हुई मुक्ति अनादेय है । सर्वज्ञ देवने जो ज्ञानदर्शन रूप तथा निःसीम आत्यन्तिक सुख रूप, अनन्त अतीन्द्रियानन्द अनुभवस्थान, अप्रतिपाति और आत्मीय सहज स्वभावस्थान रूप मोक्षपद फरमाया है, वह सर्व दोषोंसे रहित होनेके कारण सर्वजन मान्य है। मोक्षात्माओंके रहनेके स्थानका स्वरूप हम प्रथम ही लिख चुके हैं, इस लिए यहाँ पर पुनः लिखने की जरूरत नहीं ।
इत्युध्धृतो गुणस्थानरत्नराशिः श्रुतार्णवात् । पूर्वर्षिसूक्तिनावैव, रत्नशेखरसूरिभिः ॥ १३६॥