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गुणस्थानक्रमारोह.
श्लोकार्थ - जो आराध्य है, जो साध्य है, जो ध्येय है और जो दुर्लभ है, वह चिदानन्दमय परम पद सिद्धोंने प्राप्त किया है । व्याख्या - संसारभर में जो वस्तु आराधकों द्वारा आराधनीय है तथा ज्ञान दर्शन चारित्र द्वारा साधक पुरुष सदा काल जिसकी साधना में लगे रहते हैं और योगी लोग अनेक प्रकार के ध्यानोंसे जिसका ध्यान करते हैं, उस परमानन्द पदको सिद्ध परमात्माओं ने प्राप्त किया है । वह आत्मस्वभाव - रमणता रूप चिदानन्द पद अभव्य जीवोंको सर्वथा अप्राप्य है, तथा कितने एक भव्य प्राणियों को भी तथा प्रकारकी सामग्रीका अभाव होनेसे सर्वथा दुर्लभ है। पूर्वोक्त परम पद दूरभवि प्राणियों को बड़े कष्टसे अर्थात् संसार में बहुत काल परिभ्रमण करनेसे प्राप्त होता है, किन्तु निकटभवी - अल्पसंसारी जीवों को ही सुलभता से प्राप्त हो सकता है ।
अब उस परम पदका स्वरूप बताते हैं
नात्यन्ताभावरूपा न च जडिममयी व्योमवद् व्यापिनी नो, न व्यावृत्तिं दधाना विषयसुखघना नेष्यते सर्वविद्भिः । सद्रूपात्मप्रसादाद् दृगवगम गुणौघेन संसारसारा, निःसीमात्यक्षसौख्योदय वसतिरनिःपातिनी मुक्तिरुक्ता ॥ १३४ ॥
श्लोकार्थ - अत्यन्ताभाव रूप मुक्ति नहीं, जड़मयी नहीं, व्योमके सदृश सर्व व्यापिनी नहीं, व्यावृत्तिको धारण करनेवाली भी मोक्ष नहीं तथा विषय सुखवाली भी मुक्ति नहीं है, किन्तु सद्रूपात्मप्रसत्तिसे दर्शनादि गुणसमूहसे संसारसे सारभूत तथा निःसीम अतीन्द्रिय सुखका स्थान, निपात रहित सर्वज्ञोंने मुक्ति कथन की है ।