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चौदहवाँ गुणस्थान.
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सकते हैं, अरूपी वस्तु साकार नहीं हो सकती, परन्तु सिद्ध पर: मात्माकी अवगाहनाका आकार कथन करनेसे तो सिद्धों में साकारता सिद्ध होने पर अरूपी आत्मद्रव्यके अन्दर सरूपत्व दोष उपस्थित होता है । तथा दूसरा यह भी महान् दोष आता है कि सिद्धों के रहनेका स्थान परिमित ही है याने प्राग्भारा भूमि केवल ४५ लाख योजन प्रमाण है, बस उतने ही आकाशप्रदेशों में ऊपर सिद्धात्मा रहते हैं, किन्तु जब उनमें साकारता होगी तो फिर उतने परिमित स्थानमें अनन्त सिद्धात्माओं का समावेश न हो सकेगा। इसके समाधानमें समझना चाहिये कि जिस शरीरमें से आत्मा सिद्धि गतिको प्राप्त करती है, उस शरीर के अन्दर जितना नाक, कान, मुँह, पेट आदि पोलानका भाग है, उतना भाग निकाल देने पर शरीरका तृतीयांश न्यून होता है, उस तृतीयांशको वर्ज - कर शेष रहे हुए शरीर प्रमाण आकाश प्रदेशोंको अवगाहन करके सिद्धात्मा के अरूपी असंख्य आत्मप्रदेश रहते हैं, इसी कारण उसे अवगाहना कहते हैं और इसी अपेक्षासे बाल जीवोंको समझानेके लिए शास्त्रकारोंने उसका आकार कथन किया है, अन्यथा अरूपी सिद्धात्माओं का वास्तविकमें कुछ आकार ही नहीं, क्योंकि जब तक आत्मा के साथ कर्मोपाधी है तब तक ही वह अनेक प्रका रके आकार धारण करती है, पर कर्मोपाधी रहितात्मा आकार धारण कर ही नहीं सकती ॥
अब सिद्धों के ज्ञान दर्शनका विषय कहते हैं— ज्ञातारोऽखिलतत्वानां द्रष्टार कहेलया । गुणपर्याययुक्तानां, त्रैलोक्यो दरवर्त्तिनाम् ॥ १२९ ॥
श्लोकार्थ - तीन लोकोदरवर्ति गुण पर्याय सहित समस्त तत्वोंको सिद्ध परमात्मा एक हेला मात्र से जानते हैं और देखते हैं ।।