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गुणस्थानक्रमारोह.
स्वभावसे ही क्रम से नीची, तिरछी और ऊंचीं गति होती है. वैसे ही निष्कर्मा सिद्ध परमात्मा की भी स्वभाव से ही उर्ध्व गति होती है |
यदि कोई यहाँपर यह शंका करे कि कर्मरहित होकर आत्मा ही गति क्यों करती है ? वह तिरछी और नीची गति क्यों नहीं करती ?
इस शंकाको दूर करनेके लिए शास्त्रकार कहते हैंन चाधो गौवाभावान्न तिर्यक् प्रेरकं विना । न च धर्मास्तिकायस्याभावालो कोपरि ब्रजेत् १२५
श्लोकार्थ- गुरुताके अभाव से अधो गमन, प्रेरकके विना तिरछा गमन, तथा धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकके ऊपर गमन नहीं करती ||
व्याख्या - निष्कर्मात्मा कर्म रूप भारके अभाव से अधोगति नहीं करती, क्योंकि भारके विना किसी भी वस्तुकी अधोगति नहीं हो सकती । प्रेरकके अभावसे तिरछी गति नहीं करती और धर्मास्तिकाय के अभाव से लोकके ऊपर गति नहीं करती, क्योंकि जीवाजीव पदार्थों को गमनागमन करनेमें केवल धर्मास्तिकाय ही सहायक है और वह केवल चौदह राजलोक में ही स्थित है, इस लिए निष्कर्म सिद्ध परमात्मा अलोक में गमन न करके लोकान्त स्थानमें जाकर ठहर जाता है । अर्थात् उर्ध्व लोकमें भी जहाँ तक धर्मास्तिकायका सद्भाव है वहाँ तक ही सिद्ध भगवान उर्ध्व गति कर सकता है आगे नहीं । जिस प्रकार मछली आदि जलचर जीवोंको गति करनेमें पानी ही सहायक होता है, वे स्थलमें गति नहीं कर सकते, वैसे ही गति सहायक धर्मास्तिकायका अलोक में