Book Title: Gunsthan Kramaroh
Author(s): Tilakvijaymuni
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 199
________________ (१७८) गुणस्थानक्रमारोह. ___ व्याख्या-पूर्व प्रयोग-अचिन्त्य आत्मवीर्यसे जो प्रथम चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम दो समयोंमें पचासी कर्म प्रकृतियोंको क्षय करनेके लिए प्रयत्न विशेष किया है, उस हेतुसे तथा कर्मभारका अभाव होनेसे-कम बन्धनसे विमुक्त होनेसे और स्वभाव परिणाम याने तथा प्रकारका निष्कर्मात्माका स्वभाव होनेसे, इन पूर्वोक्त चार हेतुओंसे सिद्ध भगवानकी उर्ध्वगति होती है ।। ___ अब इन हेतुओंको ही चार श्लोकों द्वारा स्पष्ट तया कहते हैंकुलालचक्रदोलेषु, मुख्यानां हि यथा गतिः। पूर्वप्रयोगतः सिद्धा, सिद्धस्योर्ध्वगतिस्तथा ॥१२१॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टाप्स्वलाबुनः। कर्मसङ्गविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥१२२॥ एरण्डफलबीजादेवन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धनविच्छेदात्, सिद्धस्यापि तक्ष्यते ॥१२३॥ यथास्तिर्यगूध च, लेष्टुवाय्वग्निवीचयः। स्वभावतःप्रवर्तन्ते, तथोर्ध्वगति रात्मनः ॥१२४॥ चतुर्भिः कलापकम् ॥ श्लोकार्थ-जिस प्रकार कुलाल चक्रकी दोलाओं तथा बाण वगैरहओंकी गति पूर्वकृत प्रयोगसे सिद्ध होती है, वैसे ही सिद्धकी उर्च गति होती है । जिस तरह मिट्टीके लेपका अभाव होनेसे पानीमें तुंवेकी उर्च गति होती है उसी तरह कर्माभावसे सिद्धकी गति भी उर्ध्व कही है । एरंड फलके वीजकी जैसे बन्ध विच्छेद होनेसे उर्ध्व गति होती है, वैसे ही कर्मबन्ध विच्छेद होनेसे सिद्धकी उर्ज गति होती है । तथा जिस तरह स्वभावसे ही पाषाण, वायु

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