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चौदहवाँ गुणस्थान. ... (१७७) व्याख्या-अयोगि गुणस्थानके अन्तिम समयमें एकतर वेदनीय, आदेय नाम, पर्याप्त नाम, त्रस नाम, वादर नाम, मनुध्यगति, मनुष्यायु और मनुष्यानुपूर्वी, यश नाम, सौभाग्य नाम, उच्च गोत्र, पंचेन्द्रिय जाति तथा तीर्थकर नाम, एवं तेरह कर्मप्रकतियोंको क्षय करके तथा सिद्धत्व पर्यायको प्राप्त करके वह सनातन परमेष्ठी भगवान उसी समयमें शाश्वत लोकान्त पदको प्राप्त होता है। अर्थात् जन्म जरा मृत्युसे रहित होकर वह महात्मा अव्यय मोक्षपदको प्राप्त करता है और वहाँपर उसकी विशुद्ध केवल ज्योतिमय आत्मा सदा काल एक सिद्धत्व स्वभावमें ही स्थिर रहती है । इस अव्यय पदको प्राप्त किये बाद अनन्त कालमें उस परमात्मा को ऐसा कोई समय नहीं आवे कि जिस समय उसकी ज्योतिमय आत्मा उसके स्वभावको छोड़कर विभाव दशाको प्राप्त करे । पूर्वोक्त अयोगि गुणस्थानमें रहा हुआ केवली भगवान अबन्धक होता है, याने कर्म प्रकृतियोंको बाँधता नहीं। एक वेदनीय आदि ऊपर बताई हुई तेरह कर्म प्रकृतियोंको वेदता है। इस गुणस्थानमें अन्तिम दो समयोंसे पहले पचासी कर्म प्रकतियोंकी सत्ता रहती है तथा अन्तके दो समयोंमें तेरह कर्म प्रकृ. . तियोंकी सत्ता रहती है और अन्तिम समयमें समस्त कर्म प्रकृतियोंकी सत्ता नष्ट होजाती है, इस लिए अयोगि गुणस्थानके अन्त समय केवली भगवानकी आत्मा सर्व कर्म प्रकृतियोंसे निर्लेप होती है। ____अब निष्कर्मात्मा किस प्रकार लोकान्त पदको गमन करती है सो कहते हैं
पूर्वप्रयोगतोऽसङ्ग-भावाद्बन्धविमोक्षतः। स्वभावपरिणामाच, सिद्धस्योर्ध्वगतिर्भवेत् ॥१२०॥
श्लोकार्थ-पूर्व प्रयोगसे, असंग भावसे, बन्धविमोक्षसे तथा स्वभाव परिणामसे सिद्धकी उर्ध्वगति होती है ।