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चौदहवाँ गुणस्थान. (१७१) अब अयोगि गुणस्थानकी स्थिति बताते हैं- .. अथायोगिगुणस्थाने, तिष्ठतोस्य जिनेशितुः। लघुपञ्चाक्षरोच्चारप्रमितैव स्थितिर्भवेत् ॥ १०४ ॥ - श्लोकार्थ-अब अयोगि गुणस्थानमें रहे हुए जिनेशकी पाँच लघु अक्षर उच्चारण मात्र ही स्थिति होती है। ___व्याख्या-तेरहवें सयोगि गुणस्थानके बाद केवली भगवान चौदहवें अयोगि गुणस्थानमें प्रवेश करता है, उस चौदहवें अयोगि गुणस्थानकी स्थिति पाँच लघु अक्षर उच्चारण मात्र कालकी होती है, अर्थात् अ इ उ ऋ ल, इन पाँच लघु अक्षरोंको उच्चारण करते जितना टाइम लगता है उतनी ही स्थिति इस अयोगि गुणस्थानकी होती है।
अब अयोगि गुणस्थानमें भी ध्यानकी संभावना बताते हैंतत्रानिवृत्तिशब्दान्तं, समुच्छिन्नक्रियात्मकम् । चतुर्थ भवति ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ॥१०५॥
श्लोकार्थ-अयोगि गुणस्थानमें परमेष्ठी प्रभुको अनिवृत्ति शब्दान्त समुच्छिन्नक्रियात्मक चौथा शुक्ल ध्यान होता है ।
व्याख्या-अयोगि गुणस्थानमें अयोगी केवली भगवानको, जिसका आगे चलकर स्वरूप कथन किया जायगा और निवृत्ति शब्द जिसके अन्तमें है ऐसा समुच्छिन्नक्रिय निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यानका चतुर्थ पाया होता है ।
अब शास्त्रकार पूर्वोक्त चतुर्थ शुक्ल ध्यानका स्वरूप कथन करते हैंसमुच्छिन्ना क्रिया यत्र, सूक्ष्मयोगात्मिकापि हि । समुच्छिन्नक्रियं प्रोक्तं, तद् द्वारं मुक्तिवेश्मनः ॥१०६।।