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(१७४) गुणस्थानक्रमारोह.
श्लोकार्थ-तत्वसे तो आत्मा ही ध्याता आत्माके द्वारा आत्माका ही ध्यान करता है, अन्य सब उपचार व्यवहार नय आश्रित है ॥ __व्याख्या-निश्चय नयकी अपेक्षासे आत्मा ही ध्याता-ध्यान करने वाली है और आत्मा ही ध्येयरूप है, याने अपनी आत्म शक्ति द्वारा अपने आत्मस्वरूप ध्येयका ध्यान आत्मा ही करती है । तथा जो कुछ अष्टांग योगप्रवृत्ति-लक्षणरूप उपचार है वह सब ही व्यवहार नयकी अपेक्षासे है ।
अब अयोगि गुणस्थानके उपान्त्य समयका कृत्य बताते हैंचिद्रपात्ममयो योगी, युपान्त्यसमये द्रुतम् । युगपत्क्षपयेत्कर्म-प्रकृतीनां द्विसप्ततिम् ॥ १११ ॥
श्लोकार्थ-चिद्रूपात्ममय योगी अयोगि गुणस्थानके उपान्य समयमें एक साथ ही वहत्तर कर्म प्रकृतियोंको क्षय करता है।
व्याख्या-केवल ज्ञानात्ममय अयोगी महात्मा अयोगि गुण स्थानमें रहा हुआ अयोगि गुणस्थानके उपान्त्य समयमें शीघ्रतासे सम कालमें ही बहत्तर कर्म प्रकृतियोंको क्षय करता है । ___ जिन कर्म प्रकृतियों को क्षय करता है उन्हीं कर्म प्रकृतियों के नाम शास्त्रकार पाँच श्लोकों द्वारा बताते हैंदेहबन्धनसंघाताः, प्रत्येकं पञ्च पञ्च च । अङ्गोपाङ्गत्रयं चैव, षट्कं संस्थानसंज्ञकम् ॥११२।। वर्णाः पञ्च रसाः पञ्च, षट्कं संहननात्मकम् । स्पशाष्टकं च गन्धौ द्रौ, नीचानादेयदुर्भगम्॥११३॥