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(१५८) गुणस्थानकमारोह. है वह गायके दूधके समान होता है। ३ तीर्थकर प्रभुके शरीरमें कभी भी पसीना नहीं आता। ४ तीर्थंकर भगवानको आहार करते तथा निहार करते (दिशाजाते) अन्य कोई छमस्थ प्राणी नहीं देख सकता । ये चार अतिशय तो तीर्थंकर प्रभुके जन्मसे ही होते हैं, ग्यारह अतिशय चार घाति कर्मोंके नष्ट होने पर होते हैं । ५ तीर्थंकर महात्माको जब केवल ज्ञानोत्पन्न होता है तब एक योजन प्रमाण भूमिमें देवता लोग रूप्य, सुवर्ण और रत्नमय समवसरणकी रचना करते हैं, उस एक योजन प्रमाणवाले समवस. रणमें कोटाकोटी मनुष्यों, देवताओं तथा तिर्यंचोंका समावेश हो जाता है । ६ तीर्थकर प्रभु समवसरणमें विराजमान होकर अर्ध मागधी भाषामें धर्मदेशना देते हैं, किन्तु मनुष्य, देवता तथा तिर्यंच सब प्राणी अपनी अपनी भाषामें समझ लेते हैं और उस वाणीका एक योजन प्रमाण विस्तार होता है । ७ सूर्यको किरणोंको भी फीकी करनेवाला और चारों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला तीर्थकर प्रभुके मस्तकके पीछे एक भामंडल होता है, भगवानका शरीर अतीव कान्तिमय होता है इसलिए देवता लोग उनके शरीरकी कान्तिको कुछ संकुचित करके उनके पृष्ट भागमें भामंडल तया स्थित कर देते हैं। ८ जहाँ पर तीर्थकर प्रभुका विहार होता है वहाँ पर सवासौ योजन पर्यन्त चारों तरफ मारी प्रभृति रोगोत्पत्ति नहीं होती। ९ तीर्थंकर भगवानके समवसरणमें बैठे हुए प्राणियोंके हृदयमें से जाति वैर भी नष्ट हो जाता है । १० जिस देशमें तीर्थकर भगवानका विचरना होता है उस देशमें इति याने धान्योत्पत्तिको उपद्रव करनेवाली टीढ़ी वगैरह क्षुद्र जन्तुओंकी उत्पत्ति नहीं होती । ११ जिस देशमें तीर्थंकर प्रभु विराजमान होते हैं, उस देशमें औत्पातिक रोग नहीं होता ।