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गुणस्थानक्रमारोह.
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में तीर्थकर भगवान विचरते हैं उस मार्गमें सीधे पड़े हुए भी काँटे ऊँधे हो जाते हैं । २६ तीर्थंकर प्रभु जब विहार करते हैं तष मार्गके वृक्ष भी उनकी ओर नम जाते हैं । २७ प्रभुके आगे आकाशमें भुवन व्यापी देवदुन्दुभिका नाद होता है । २८ प्रभुके होते हुए पवन भी शरीरको सुखस्पर्शि चलता है । २९ जिस जगह भगवान विराजते हैं उस प्रदेशवर्ती पक्षीगण भी आकाशमें भगवानको प्रदक्षिणा देते हुए गति करते हैं । ३० जहाँ पर तीर्थकर प्रभु विराजमान होते हैं वहाँ पर सुगन्धमय जलकी दृष्टि होती है । ३१ तीर्थंकर भगवानके समवसरणमें जल स्थलके पैदा हुए सरस सुगन्धिवाले तथा पंच वर्णके पुष्पोंकी जानु प्रमाण दृष्टि होती है । ३२ तीर्थकर प्रभुके सिरके केश तथा हाथों पगोंके नख जितने सुशोभित दीखें उतने ही रहते हैं अधिक नहीं बढ़ते । ३३ तीर्थकर प्रभुके पास चारनिकायके देवताओंमेंसे कमसे कम एक करोड़ देवता रहते हैं अर्थात् एक करोड़ देवता तो प्रभुकी सेवामें उपस्थित रहते हैं, यह सब केवल ज्ञानावस्थाका स्वरूप समझना। अन्यथा छद्मस्थावस्थामें तो प्रभु एकले भी विचरते हैं। ३४ प्रभुकी हयातीमें वसन्तादि छह ही ऋतुओं संबन्धि पुष्पादि सामग्री सदैव सुखकारी होती है । इस प्रकार तीर्थकर भगवानके चौंतीस अतिशय होते हैं। पूर्वोक्त चौंतीस अतिशयोंसे युक्त और सर्व सुरासुरेन्द्रोंसे पूजित तीर्थंकर भगवान सर्वोत्तम श्री जिनशासनकी प्रवृत्ति कराते हुए उत्कृष्ट देशोना पूर्व कोटी पर्यन्त पृथिवीतल पर विचरते हैं ।
पूर्वोक्त तीर्थंकर नाम कर्मको तीर्थंकर भगवान जिस तरह भोगते हैं अव उसका वर्णन करते हैं