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तेरहवाँ गुणस्थान. (१६५) श्लोकार्थ-समुद्घातके प्रथम समय और आठवें समयमें मुनि औदारिक शरीरके योगवाला होता है, तथा दूसरे, छठे
और सातवें समयमें मिश्रौदारिक काययोग वाला होता है, तृतीयादि तीन समयोंमें केवल एक कार्मण शरीरका ही योग होता है और उन्हीं तीन समयोंमें अनाहारी होता है।
व्याख्या -केवली प्रभु समुद्रघात करते वक्त पहले और अन्तिम समयकालमें औदारिक काययोगवान होता है, अ. र्थात् औदारिक शरीरके साथ उसके आत्मप्रदर्शीका संबन्ध रहता है। दूसरे, छठे और सातवें समयमें पूर्वोक्त महात्मा मिश्रीदारिक कायके साथ संयोग रखता है, याने कार्मण शरीरके साथ औदारिक शरीरकी मिश्रता रहती है और उसके साथ आत्मप्रदेशोंका संयोग होता है, इसीसे उसे मिश्रौदारिक योग कहते हैं । तीसरे, चौथे और पाँचवें समयमें केवल ज्ञानी महास्माके आत्मप्रदेशोंके साथ केवल कार्मण शरीरका ही संबन्ध होता है, अतः इन पूर्वोक्त तीन समयोंमें केवली प्रभु अनाहारी होता है। कहा भी है-औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु ॥१॥ कार्मणशरीरयोक्ता चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च । समयत्रये च तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २॥ __ सब ही केवल ज्ञानी महात्मा समुद्घात नहीं करते, किन्तु जो करते हैं उनका स्वरूप लिखते हैं
यः षण्मासाधिकायुष्को, लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ॥९४॥ श्लोकार्थ-जो महात्मा छः मास आयु शेष रहने पर के.