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गुणस्थानक्रमारोह.
क्षणमात्र स्थिति करके सूक्ष्म वचन योग और सूक्ष्म चित्तयोगको निग्रह करता है । इसके बाद सूक्ष्म काययोगमें केवली प्रभु क्षण मात्र स्थिति करके सूक्ष्मक्रिय चिद्रूप अपनी आत्माका स्वयं अनुभव करता है ।
व्याख्या सूक्ष्मक्रिय अनिवृत्ति नामक तीसरे शुक्ल ध्यानका ध्याता केवल प्रभु अचिन्त्य आत्मवीर्यकी शक्ति से पूर्वोक्त इस बादर काययोग में स्वभावसे ही स्थिति करके स्थूल वचनयोग और स्थूल मनोयोगको सूक्ष्म करता है, अर्थात् मन वचन के स्थूल व्यापारको सूक्ष्म करता है। इसके बाद बादर शरीर व्यापारको छोड़के और पूर्वोक्त सूक्ष्म मनो वचनके व्यापार में स्थिति करके बादर कायव्यापारको सूक्ष्म करता है । फिर उस सूक्ष्म कायव्यापार में क्षणमात्र काल ठहरके तत्काल ही प्रथम सूक्ष्म किये हुए मनो वचनके व्यापारको सर्वथा जड़ मूलसे क्षय करता है । मन वचन के व्यापारको सर्वथा नष्ट करके फिर सूक्ष्म काय व्यापार में क्षणमात्र ठरहके सूक्ष्म क्रियचिद्रूप अपने आत्म स्वरूपको स्वयं अपनी आत्मा द्वारा ही अनुभव करता है ||
पूर्वोक्त जो सूक्ष्म शरीरको स्थिर करनेके लिए प्रयत्न विशेष किया जाता है वही केवल ज्ञानी महात्माका ध्यान कहा जाता है ||
अब इसी बात को स्पष्ट करते हैं
छद्मस्थस्य यथा ध्यानं, मनसः स्थैर्यमुच्यते । तथैव वपुषः स्थैर्य, ध्यानं केवलिनो भवेत् ॥ १०१ ॥
श्लोकार्थ - जिस प्रकार ध्यान छद्मस्थके मनको स्थिर करने वाला कहा जाता है वैसे ही केवली प्रभुके गरीरको स्थिर करने वाला होता है ||