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तेरहवाँ गुणस्थान,
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१२ तीर्थंकर प्रभुके विराजमान होते हुए उस देशमें अतिवृष्टि नहीं होती, अर्थात् जिससे जनपदको हानि पहुँचे वैसी दृष्टि नहीं होती । १३ प्रभुकी हयातीमें जनपदको हानि कारक सर्वथा दृष्टिका अभाव नहीं होता । १४ तीर्थंकर प्रभुके होते हुए देशमें दुर्भिक्ष नहीं पड़ता । १५ तीर्थंकर भगवानकी हयातीमें स्वराष्ट्र संबन्धि किसी प्रकारका भय नहीं होता । १६ आकाशमें तीर्थंकर के आगे देवकृत धर्मप्रकाशक एक धर्मचक्र होता है । १७ तीर्थकर प्रभुके आगे आकाशमें चामर होते हैं । १८ तीर्थंकर भगवानको बैठनेके लिए स्फटिक रत्नमय अति उज्वल भूमिसे अधर देवकृत एक सिंहासन होता है । १९ तीर्थंकर प्रभुके ऊपर आकाशमें अधर देवकृत तीन छत्र विराजमान होते हैं । २० तीर्थंकर प्रभुके आगे सहस्र योजन ऊँचा रत्नमय एक इन्द्रध्वज रहता है । २१ तीर्थंकर भगवानको जबसे केवल ज्ञान प्राप्त होता है तबसे वे जमीन पर पैर रखकर नहीं विचरते, किन्तु देवताओंके बनाये हुए सुवर्णके नव कमलों पर पैर रखकर विचरते हैं । २२ जिस समवसरणमें प्रभु देशना देते हैं, उस समवसरण रत्न, सुवर्ण तथा रूप्यमय तीन प्राकार (कोट) होते हैं। २३ पूर्वोक्त समवसरणके चार दरवाजे होते हैं जिसमें एक दरवाजेकी तरफ तो तीर्थंकर प्रभु मुख करके बैठते हैं और तीन दरवाजों तरफ देवकृत प्रभुके प्रतिबिंब होते हैं, उनसे उस तरफ बैठनेवाले देव मनुष्यों को साक्षात् प्रभु ही भासित होते हैं और उन तीन मुख द्वारा भी प्रभुकी वाणीका विस्तार होता है, इस अतिशयको लेकर ही तीर्थंकर भगवान चतुरंग या चतुर्मुख कहे जाते हैं । २४ केवल ज्ञान प्राप्त किये बाद तीर्थंकर भगवानके समीप सदैव चैत्य नामक अशोक वृक्ष होता है । २५ जिस मा