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गुणस्थानक्रमारोह.
तब उसे फिर पूर्वोक्त सांसारिक चार गतियोंमें परिभ्रमण करना सर्वथा सदा कालके लिए मिट जाता है ।
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दूसरी इन्द्रिय मार्गणा है, जिससे जीवोंकी गतिका ज्ञान होता हैं, उसे इन्द्रिय कहते हैं, वे इन्द्रियाँ पाँच हैं। एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर पृथ्वीकायादि जीवोंको होती है, अर्थात पाँचों इन्द्रियोंमेंसे उन जीवोंको केवल एक स्पर्शेन्द्रिय ही होती है । द्वीन्द्रिय जीवोंको स्पर्शेन्द्रिय और रसना इन्द्रिय होती है, वस्तुओंके गल सड़ जाने पर जो उनमें कीड़े वगैरह जन्तु जाते हैं, वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। तीन इन्द्रियवाले जीवोंको स्पर्शेन्द्रिय, रसना इन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय ( नासिका) होती है। चींटी वगैरह जन्तु त्रीन्द्रिय होते हैं। चार इन्द्रियवाले जीवोंमें चौथी चक्षुइन्द्रिय होती है । बिच्छू वगैरह जन्तु चार इन्द्रियवाले होते हैं । पंचेन्द्रियवाले जीवों में जलचर मछली वगैरह, स्थलचर गाय, बैल वगैरह पशु, तथा मनुष्य, खेचर हंस तोते वगैरह पक्षी, देवता तथा नारकी, स्पर्श, रसना, ( जीभ) घ्राण, चक्षु, और कर्ण (कान) मिलकर ये पाँच इन्द्रियवाले होते हैं ।
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तीसरी काय मार्गणा - जिसमें स्थिति करके जीव रहता है, उसे काय कहते हैं, सर्वज्ञ प्रभुने जीवोंकी काय छः फरमाई हैं, पृथ्वीकाय, अपकाय, (पानी) ते काय, (अग्नि) वायुकाय, वनस्पति काय, ये पाँच काय तो एकेन्द्रिय जीवोंकी समझना और त्रसकाय, इस सकायमें द्वीन्द्रियसे लेकर हलते चलते पंचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व जीव समझ लेना ।
चौथी योग मार्गणा - दूसरे के साथ संबन्ध करे उसे योग कहते हैं। वे योग जैन दर्शनमें तीन माने हैं, मनोयोग - अन्तः