________________
..MARA
(७८.) गुणस्थानकमारोह. प्रत्यक्ष होते हैं । इस बातका विशेष विवेचन नंदी सूत्रमें किया है।
आठवीं संयम मार्गणा-अप्रशस्त कार्योंसे मनको रोकना उसे संयम कहते हैं, वह संयम सात प्रकारका होता है। जिन जीवोंको व्रत प्रत्याख्यान नहीं है, वे सर्व जीव अविरति संयममें समाविष्ट हैं । दूसरा देशविरति संयम है, जिसमें श्रावक धर्मका प्रतिपालन किया जाता है। तीसरा सामायिक संयम है । चौथा छेदोपस्थापनीय संयम-दोष निवारण करने रूप है, अर्थात् महाव्रतोंका आरोपण रूप है। पाँचवा परिहारविशुदि संयम-विशुद्ध चारित्र रूप है । यह परिहारविशुद्धि संयम प्रथम
और अन्तिम तीर्थंकरके साधुओंको ही होता है। इस संयमको धारण करनेवाले साधुओंको बड़े कठिन अभिग्रह धारण करने पड़ते हैं और वे साधु परिहार विशुद्धि संयममें सदा काल अप्रमत्तप्रमाद रहित रहते हैं । इसका विशेष वर्णन प्रज्ञापना (पन्नवणा) सूत्रमें लिखा है । छठा संयम सूक्ष्मसंपराय नामक है। यह संयम सूक्ष्म लोभके सिवाय सर्व दोषोंसे रहित होता है । सातवाँ यथाख्यात संयम है, यथाख्यात संयम सर्व दोषों रहित है। केवल ज्ञानावस्था केवली भगवानको सर्वदा यथाख्यात संयम ही होता है।
नवमी दर्शन मार्गणा-देखनेको दर्शन कहते हैं, उस दर्शनके चार भेद हैं, चक्षु दर्शन-आँखोंसे वस्तुको देखना । अचक्षु दर्शन-आँखों बगैर ही चार इन्द्रियों तथा मनसे वस्तुको देखना । अवधि दर्शन-इन्द्रियोंकी सहायता विना ही आत्म लब्धिसे रूपी पदार्थोंका दर्शन करना । केवल दर्शन-सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमें रूपी अरूपी चराचर पदार्थोंको साक्षात्कार तया देखना ।
दशवीं लेश्या मार्गणा-जीवको जो कर्मसे लेपित करे उसे लेश्या कहते हैं । लेश्यायें छः होती हैं, कृष्ण लेश्या महा पापी