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(१०२) गुणस्थानक्रमारोह. मन रहित तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवोंमें अन्तिम हुंडक संस्थान होता है। सर्व देवता, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव वगैरह उत्तम पुरुषोंको केवल एक समचौरस ही संस्थान होता है । पूर्वोक्त छः संस्थानोंमें कोई संस्थान ऐसा बाकी नहीं कि जिसे अनादि कालसे संसारमें परिभ्रमण करते हुए अपनी आत्माने प्राप्त न किया हो। पूर्वोक्त चतुर्दश राज परिमाणवाले तथा स्थिति, उत्पाद, व्ययात्मक अनन्तानन्त पदार्थों से परिपूर्ण अनादि अनन्त लोककी व्यवस्थाका जो चिन्तवन किया जाता है उसे संस्थानविचय नामक धर्म ध्यानका चतुर्थ पाया कहते हैं ।
एवं पूर्वोक्त आज्ञादि आलंबनों सहित धर्म ध्यानकी इस प्रमत्त गुणस्थानमें गौणता होती है, क्योंकि प्रमत्त गुणस्थानमें रहनेवाला पाणी अवश्य प्रमाद युक्त होता है, अतः उसे निरालंबन ध्यान प्राप्त नहीं हो सकता । जो मनुष्य प्रमत्त गुणस्थानमें ही रहकर निरालंबन ध्यान करना चाहते हैं और लोगोंमें यह ख्यापन करते हैं कि हमें आलंबनकी आवश्यक्ता नहीं, हम तो निरालंबन ध्यान करते हैं, उन लोगोंका दूसरोंको भ्रममें डालनेके लिए केवल मिथ्या आडंबर मात्र ही है। इस बातको सिद्ध करनेके लिए शास्त्रकार फरमाते हैंयावत्पमादसंयुक्त स्तावत्तस्य न तिष्ठति । धर्मध्यानं निरालम्ब मित्यूचुर्जिनभास्कराः॥२९॥
श्लोकार्थ-जब तक जीव प्रमाद युक्त रहता है तब तक उसे निरालंबन धर्मध्यान नहीं हो सकता, इस तरह श्री जिनेश्वर देवोंने कथन किया है।
व्याख्या-सर्वज्ञ देवने फरमाया है कि ध्यानी जब तक प्रमाद युक्त दशामें रहता है तब तक उसे निरालंबन धर्म ध्यान